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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/६३ कलिकाल में जिनदेव का, दर्शन जीवन आधार है। पायेगा जो शुद्धभाव से, तिर जायेगा संसार से ॥ आ पहुँचे हैं - सीता के भाई हनुमान ! सीता की पुकार सुनते ही तुरन्त ही वृक्ष पर से छलाँग मारकर हनुमान प्रगट हुए और सन्मुख आकर सीता को नमस्कार किया । अहा, सीता के धर्म-भाई आये ! जैसे भाई भामण्डल सीता के पास आये, वैसे हनुमान सीता के समीप आये.... मानो भाई ! अपनी प्यारी बहन को ही लेने आया हो ? ऐसे निर्दोष भाई - बहन का मिलन मंदोदरी भी आश्चर्य से देख रही थी । महाप्रतापी वज्र अंगधारी हनुमान निर्भयता से सीता के सन्मुख खड़े हैं। प्रथम उसने अपनी पहचान दी - "मैं अंजना का पुत्र हनुमान, पवन मेरे पिता, रामचन्द्रजी का सेवक, सीता माता को नमस्कार करता हूँ। श्री राम ने मुझे यहाँ भेजा है। हे देवी ! राम-लक्ष्मण कुशल हैं, स्वर्ग जैसे महल में रहते हैं, परन्तु तुम्हारे विरह में उन्हें कहीं चैन नहीं पड़ती। जैसे मुनिराज दिन-रात आत्मा को ध्याते हैं, वैसे ही राम दिन-रात तुम्हारा ध्यान करते हैं और तुम्हारे मिलने की आशा से ही जी रहे हैं।" हनुमानजी से कुशल समाचार की बातें सुनकर सीता आनन्दित हुई और बोली - " हे भाई! आपने ऐसे उत्तम समाचार मुझे दिये, इससे मुझे अत्यन्त खुश हुई है; परन्तु अभी मेरे पास ऐसा कुछ नहीं कि मैं तुझे इनाम दे सकूँ !” तब हनुमान ने कहा – “हे पूज्य देवी ! आपके दर्शन से ही मुझे महान लाभ हुआ है। तुम्हारे जैसी उत्तम धर्मबहन मिली, इससे उत्तम दूसरा क्या है ?" सीता ने सभी कुछ पूछा - "हे भाई! चारों ओर समुद्र से घिरी हुई इस लंका नगरी में तुम किसप्रकार आये ! क्या वास्तव में तुमने रामलक्ष्मण को देखा है ? तुम्हारी उनके साथ मित्रता किस प्रकार हुई | कदाचित् मेरे वियोग में राम ने देह छोड़ा हो और उनकी अंगूठी पड़ी रह
SR No.032254
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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