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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/६० वर्तता है; उसमें वीतरागी शांतरस यही सच्चा रस है, बाकी के सभी रस नीरस हैं....अरस आत्मा का शांतरस चखनेवाले धर्मात्मा ने सारे संसार को नीरस जाना है।
हनुमान ने लंका सुन्दरी को वश करके लंका की तरफ जाने की तैयारी की; उसने लंका सुन्दरी से अन्य बातें भी की, तब लंका सुन्दरी ने बताया -
“हे स्वामी ! आप संभल कर जाना; रावण को अब आप पर पहले जैसा स्नेह नहीं रहा। पहले तो आप लंका आते थे, तब पूरा नगर सजाकर आपका स्वागत करते थे; परन्तु अब रावण आप पर नाराज है, इससे वह आपको पकड़ लेगा.... इसलिए सावधान रहना।"
हनुमान ने कहा – “हे देवी! मैं जाकर उसका अभिप्राय जानूँगा। मुझे जगतप्रसिद्ध सती सीता के दर्शन की भावना जगी है। अरे, रावण जिसका मन सुमेरु पर्वत के समान अचल था, वह भी जिसका रूप देखकर चलित हो गया, वह सती सीता मेरी माता के समान है, उसे मैं देखना चाहता हूँ।"
- ऐसा कहकर हनुमान ने शीघ्र लंकानगरी में प्रवेश किया।
वहाँ हनुमान सबसे पहले विभीषण के पास गये, विभीषण ने उसका सन्मान किया। तब हनुमान ने कहा -
"हे पूज्य ! आप तो धर्मात्मा हो, जिनधर्म के जानकार हो; आपका भाई रावण आधा भरतक्षेत्र का राजा है, वह इसतरह अन्य की स्त्री चुराकर लाये – यह क्या उचित है ? राजा होकर ऐसा अन्याय उसे शोभा नहीं देता। आपके वंश में अनेक महापुरुष मोक्षगामी हुए हैं, उनकी उज्ज्वल कीर्ति में ऐसा कार्य करने से अपयश होगा, इसलिए आप रावण को समझाओ कि सीता को वापिस सौंप दे ?"
तब विभीषण कहते हैं – “बेटा हनुमान ! मैंने अपने भाई को बहुत समझाया, परन्तु वह मानता नहीं। वह सीताजी को जब से लाया है, तब से मेरे से बोलता भी नहीं है, फिर भी मैं उसे जोर देकर पुनः