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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/५० ___ “हे भाई रत्नजटी ! तुम्हारी विद्या कहाँ गयी ? तुम यहाँ धूल में क्यों पड़े हो ?" तब भयभीत रत्नजटी ने कहा – “हे स्वामी ! दुष्ट रावण सीता को हरकर ले जा रहा था, सीताजी रो रही थीं, उसे छुड़ाने के लिए मैंने रावण का विरोध किया, इससे रावण ने मुझे मारा और मेरा ये हाल कर दिया है।"
सीता के ये समाचार सुनते ही हर्षित होकर सुग्रीव उस रत्नजटी को अपने साथ लेकर राम के पास आये। रत्नजटी ने आकर राम-लक्ष्मण को प्रणाम करते हुए कहा – “हे स्वामी ! मैं सीता का भाई भामण्डल का सेवक हूँ, मैंने रावण को सीता का हरणकर ले जाते देखा है। महासती सीता रुदन करती थी। मैंने उसे रावण से छुड़ाने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु कहाँ कैलाश को हिलाने वाला रावण और कहाँ मैं ? उसने मेरी विद्या छीनकर मेरा ये हाल कर दिया और सीता को लंका की ओर उड़ा ले गया।"
सीता की बात सुनते ही राम के रोमांच खड़े हो गये; विद्याधरों से वे पूछने लगे – “लंका यहाँ से कितनी दूर है और रावण का बल कितना है ?"
___ राम का ये प्रश्न सुनते ही सभी विद्याधर नीचे देखने लग गये, कोई बोला नहीं, सभी के मुख पीले पड़ गये; तब राम समझ गये कि ये सभी विद्याधर रावण से बहुत डरते हैं।
पश्चात् विद्याधरों ने कहा – “हे देव ! जिसका नाम लेने से हमको डर लगता है, वह रावण की बात हम क्या कहें ? रावण की ताकत की तो क्या बात ? अब तो सीताजी हाथ से गईं ही समझें। सीता वापिस मिलने की आशा आप छोड़ दें।"
लक्ष्मण ने क्रोधित होकर पूछा – “आप लोग डर क्यों रहे हैं, रावण की लंका है कहाँ यह तो कहो ? यदि रावण शूरवीर था, तो चोर की भांति सीता को क्यों ले गया ? एक बार मुझे उसका पता तो बताओ? फिर मैं उसका क्या हाल करता हूँ – यह देखना।"