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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ५/४९
उसका राज्य वापिस दिला दिया, परन्तु अपनी सुतारा को पाते ही वह उसमें ऐसा आसक्त हो गया कि उसने राम को सीता को खोजने का वचन दिया है - ये भी भूल गया ।
सीता की खोज - जैसे मुनिराज मुक्ति का ध्यान करते हैं, वैसे ही राम भी सदा सीता का ही ध्यान करते, सीता के सिवाय उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगता। सीता को बारम्बार याद करके श्री राम विचारते हैं -
"अरे, सुग्रीव को उसकी सुतारा पत्नि मैंने दिला दी, परन्तु वह मेरी सीता का कोई समाचार नहीं लाया । स्वयं का दुःख मिटते ही मेरा दुःख भूल गया अथवा सीता मर गई - इस कारण वह मुझे कहने तक नहीं आया ?"
- ऐसे विचारों से श्री राम की आँखों में से आँसू गिरने लगे । श्री राम की ऐसी दशा देखकर लक्ष्मण से नहीं रहा गया। उसने सुग्रीव को जाकर धमक हुए कहा "रे दुष्ट ! मेरे भाई श्री राम दुःखी हैं और तू अपनी स्त्री के साथ मौज में पड़ गया। सीता को खोजने के तेरे वचन को क्या तू भूल गया ? अत: बनावटी सुग्रीव का जैसा हाल श्री राम ने किया, वैसा ही मैं तेरा हाल करता हूँ ।"
तुरन्त ही सुग्रीव लक्ष्मण के चरणों में नतमस्तक हो गया और कहा- "हे देव ! मुझे क्षमा करो, मैं अपना वचन भूल गया; अब मैं कहीं से भी सीता का पता लगाकर आता हूँ ।"
ऐसा कहकर तुरन्त ही देश - विदेश के विद्याधरों को उसने आज्ञा दी - “ सीता कहाँ है, उसकी खोज शीघ्र करो । वन में, जंगल में, आकाश में, पाताल में, जम्बूद्वीप में, लवणसमुद्र में, मेरुपर्वत पर, ढाई द्वीप में सर्वत्र ढूँढकर जहाँ हो, वहाँ से सीता का पता लगाओ।"
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ऐसा कहकर सुग्रीव स्वयं भी आकाशमार्ग से सभी जगह
खोजने गया । आकाश में जाते हुये सुग्रीव ने नीचे एक पर्वत पर बेहोश होकर पड़े विद्याधर रत्नजटी को देखा । सुग्रीव ने उसके पास जाकर प्रेम
से
पूछा
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