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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/३९ सुनकर सीता भयभीत हो गई। राम ने धैर्य बंधाया और शत्रु के सामने लड़ने को बाण हाथ में लिया, परन्तु लक्ष्मण ने उन्हें रोका और कहा -
“बड़े भ्राता ! जब मैं हाजिर हूँ फिर आपको परिश्रम करने की जरूरत नहीं, आप यहीं रहो और भाभी सीता की रक्षा करो। मैं अकेला ही दुश्मनों को भगा डालूँगा"
- ऐसा कहकर लक्ष्मण लड़ने चले गये। एक तरफ हजारों विद्याधर और दूसरी तरफ अकेले लक्ष्मण । बड़ा युद्ध हुआ। विद्याधरों के हजारों बाणों को लक्ष्मण अकेले ही रोकने लगे। जैसे संयमी मुनि आत्मज्ञान द्वारा विषय-वासनाओं के समूह निवारण करते हैं, वैसे ही लक्ष्मण वज्र-बाणों द्वारा दुश्मनों का निवारण करते थे। विद्याधरों की सेना घबड़ा गई। खरदूषण का समाचार पाकर रावण भी उसकी सहायता के लिए क्रोध से धधकता हुआ पुष्पक-विमान में बैठकर युद्ध स्थल की ओर चल दिया।
मार्ग में राम के समीप सीता को देखकर, उसके अद्भुत रूप के सामने रावण आश्चर्यचकित हुआ और उसका क्रोध भी पल भर में ठंडा हो गया। वह सीता के रूप पर ऐसा मोहित हुआ कि 'इस सीता के बिना मेरा जीवन व्यर्थ है !' ऐसा विचार कर खरदूषण की सेना में किसी को भी मेरे आने की खबर पड़े, उसके पहले ही मैं चुपचाप सीता को हरकर घर ले जाऊँ; परन्तु सीता के समीप ही रामचन्द्र बैठे होने से, अपकीर्ति के भय से रावण की हिम्मत न पड़ी।
विद्या के बल से उसने जाना कि 'लक्ष्मण सिंहनाद करे तो राम यहाँ से उसके पास जायेंगे और सीता अकेली रह जायेगी' - ऐसा विचार कर रावण ने कपट से लक्ष्मण जैसी ही आवाज निकाली - 'हे राम ! हे राम ! - ऐसा कृत्रिम सिंहनाद किया। अरे रे ! कामांध रावण सिंहनाद द्वारा मानो अपनी मृत्यु को ही बुला रहा हो।
सिंहनाद सुनते ही राम को आघात लगा, वे तुरन्त हाथ में धनुषबाण लेकर लक्ष्मण की मदद के लिए दौड़ पड़े।