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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४४ अपने चित्त को संसार-सागर के तारण हार श्री जिनेन्द्रदेव की भक्ति में ही लगाओ, कारण कि जिनेन्द्र भक्ति के फलस्वरूप सर्व दुखों का सहज ही अभाव हो जाता है । " - इस प्रकार मुनिराज के श्रीमुख से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त श्रवणकर अंजना सुन्दरी को बहुत दुख हुआ । अतः वह अपने द्वारा किये गये पापाचरण की निन्दा करती हुई वह बारम्बार पश्चाताप करने लगी । अंजना के अन्तर्द्वन्द्व से परिचित मुनिराज उससे कहने लगे – “हे पुत्री ! तू शान्त होकर निज शक्ति अनुसार जिनधर्म का सेवन कर । परम भक्ति पूर्वक श्री जिनेन्द्रदेव एवं अन्य संत धर्मात्माओं की सेवा कर - उपासना कर । तेरे द्वारा पूर्वकाल में किये गये अधोकर्म का फल यद्यपि तुझे अधोगति की प्राप्ति के रूप में प्राप्त होता, पर समयश्री आर्यिका ने धर्मोपदेशरूंपी हस्तावलम्बन प्रदान कर तुझे कुगति - -गमन से बचा लिया । कुछ ही दिनों पश्चात् तुम्हें परम सुख प्राप्त होगा । तेरा पुत्र देवों से भी न जीता जा सके – ऐसा पराक्रमी होगा और कुछ ही दिनों पश्चात् तुम्हें अपने पति का संयोग प्राप्त होगा । अतः हे भव्य ! तू अपने चित्त के क्षोभ का परित्याग कर और प्रमाद रहित हो, धर्मकार्य में तत्पर बन ।” मुनिश्री के अमृतमयी वचनों को सुनकर दोनों सखियों को महान हर्ष हुआ, उनके नेत्र आनन्दाश्रु बरसाने लगे । “अहो ! इस घनघोर वन में आप धर्मपिता हमें प्राप्त हुये, आपके दर्शन से हमारे दुख दूर हुये, हे प्रभो ! आप ही परमशरणभूत हैं।" इस प्रकार महाविनयपूर्वक स्तुति करती हुई दोनों सखियाँ बारम्बार मुनिवर के चरणों में नमन करने लगीं । मुनिश्री भी उन्हें धर्मामृतपान कराकर आकाश मार्ग से गमन कर गये । - अंजना अपने पूर्वभव के प्रसंगों से परिचित होकर पाप से भयभीत होती हुई धर्म में तत्पर हो गयी । 'मुनिराज के निवास से यह गुफा पावन
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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