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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४३ - इस प्रकार आर्यिका श्री के उपदेश से रानी कनकोदरी नरक के दुखों से भयभीत हुई और उसने सम्यग्दर्शन सहित श्रावक के व्रत अंगीकार कर लिये और श्री जिनेन्द्र देव की प्रतिमा को अत्यन्त बहुमान पूर्वक श्री जिनमन्दिर में वापिस विराजमान करवाया तथा महा उत्सवपूर्वक भगवान की पूजा का भव्य आयोजन किया। इस प्रकार सर्वज्ञदेव प्रणीत धर्म की आराधना करके वह पटरानी कनकोदरी स्वर्ग में गयी और स्वर्ग से चयकर राजा महेन्द्र की पुत्री तू अंजना हुई है।" श्री मुनिराज कहते हैं - "हे पुत्री ! तूने पूर्व पुण्योदय के कारण राजकुल में जन्म लिया और उत्तम वर को प्राप्त किया है, किन्तु तुमने जिनप्रतिमा को मन्दिर से बाहर निकाल दिया था, उसी के फलस्वरूप तुम्हें पति का वियोग एवं कुटुम्बीजनों द्वारा किया गया तिरस्कार सहना पड़ा। विवाह के तीन दिन पूर्व कुमार पवनंजय अपने मित्र प्रहस्त के साथ गुप्तरूप से तुम्हारे महल के झरोखे पर आकर बैठे थे, उसी समय मिश्रकेशी सखी द्वारा की गयी विद्युतप्रभ की प्रशंसा एवं पवनंजय की निंदा उन्होंने सुन ली थी- इसी कारण पवनकुमार को तुम्हारे प्रति द्वेष हो गया था। तत्पश्चात् युद्ध में प्रस्थान करते समय उन्होंने जब मानसरोवर पर पड़ाव डाला, तब वहाँ एक चकवी को विरहताप से संतप्त देखकर उनका हृदय करुणा से भीग गया और वही करुणा सखीरूप होकर उन्हें तुम्हारे महल तक ले आयी - इस प्रकार तुम्हें गर्भ रहा और कुमार ने गुप्तरूप से ही वापस युद्ध हेतु प्रस्थान कर दिया।" .. मुनिराज के श्रीमुख से अंजना सुन्दरी के लिये सहज ही करुणापूर्ण वचन प्रस्फुटित होने लगे – “हे बालिके ! पूर्व भव में तुमने जिनप्रतिमा का अविनय किया था, यही कारण है कि तुम्हारी पवित्रता को भी कलंक का सामना करना पड़ा। पूर्व पाप के फलस्वरूप ही ऐसे घोर दुख को प्राप्त हुयी हो, अतः अब कभी इस तरह के निंद्य कार्य मत करना । अब तो तुम
SR No.032253
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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