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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३ / ५७
नरेन्द्र- जिनेन्द्र कोई भी जीव को नहीं बचा सकते। तब तो मात्र एक अपनी आत्मा ही शरण है ।
जब कोई उपाय नहीं सूझा, तब श्रीकृष्ण और बलदेव नगरी का किला तोड़कर नदी के पानी से आग बुझाने लगे, परन्तु रे देव ! यह पानी भी तेल के समान होने लगा और उसके द्वारा आग और बढ़ने लगी। उस समय आग को रोकना अशक्य जानकर दोनों भाई माता-पिता को नगर
बाहर निकालने के लिए उद्यमी हुए । रथ में माता-पिता को बैठाकर घोड़ा जोता; परन्तु वह नहीं चला, हाथी जोते परन्तु फिर भी नहीं चला। रथ का पहिया पृथ्वी में धंस गया.... अन्त में हाथी-घोड़े से रथ नहीं चला - ऐसा देखकर वे श्रीकृष्ण और बलभद्र दोनों भाई स्वयं रथ में जुते और
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उसे खींचने लगे.... परन्तु रथ नहीं चला सो वह नहीं ही चला.... वह तो वहीं का वही रुका रहा। जिस समय बलदेव जोर लगाकर रथ को दरवाजे के पास तक लाये.... उसी समय नगरी का दरवाजा अपने आप बंद हो गया। दोनों भाइयों ने लकड़ी मार-मार कर दरवाजा तोड़ने की कोशिश की, तब आकाश से देव बाणी हुई
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" मात्र तुम दोनों भाई ही द्वारिका में से जीवित निकल सकते हो, तीसरा कोई नहीं। माता-पिता को भी तुम नहीं बचा सकते । "
उस समय उनके माता-पिता ने गद्गद् भाव से कहा
"हे पुत्रो ! तुम शीघ्र चले जाओ, हमारा तो मरण निश्चित है । यहाँ से अब एक कदम भी चल नहीं सकते । इसलिए तुम जो यदुवंश के तिलक हो। तुम जीवित रहोगे तो सब जीवित रहेंगे। दोनों भाई अत्यंत हताश हुए और माता-पिता के पैर छूकर, रोते-रोते उनकी आज्ञा लेकर वे नगर के बाहर चले गये । अरे ! तीन खण्ड के ईश्वर भी मातापिता को न बचा सके ।
श्रीकृष्ण और बलभद्र ने बाहर आकर देखा, तो क्या देखा ?
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