SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/५६ द्वीपायन मुनि अपनी जलाई अग्नि में स्वयं भी भस्मीभूत हो गये थे। यहाँ कोई प्रश्न करे – “अरे ! यह महान वैभवशाली द्वारिका पुरी, जिसकी देवों ने रचना की थी तथा जिसकी अनेक देव सहायता करते थे, वे सभी अब कहाँ गये ? किसी ने द्वारिका को क्यों नहीं बचाया ? बलदेव-वासुदेव का पुण्य भी कहाँ गया ? उसका समाधान – हे भाई ! सर्वज्ञ भगवान के द्वारा देखी हुई भवितव्यता दुर्निवार है। जिस समय यह होनहार हुई, उस समय देव भी दूर चले गये थे। जब भवितव्य ही ऐसा था तो वहाँ देव क्या कर सकते थे ? यदि देव नहीं जाते और नगरी की रक्षा करते, तब वह जलती कैसे? अरे ! जब नगरी जलने का समय आया तब देव चले गये। पुण्यसंयोग किसी का कायम नहीं रहता, वह तो अस्थिर है। द्वारिका नगरी के जलने से प्रजाजन अत्यन्त भयभीत होकर बलदेव-वासुदेव की शरण में आये और अतिशय व्याकुलता से पुकारने लगे “हे नाथ ! हे कृष्ण ! हमारी रक्षा करो, इस घोर अग्नि से हमें बचाओ।" __ अपनी आँखों के सामने भड़कती हुई अग्नि को द्वारिका नगरी में देखकर दोनों भाई एकदम आकुल-व्याकुल हो गये। जबकि दोनों भाई आत्मज्ञानी थे – यह जानते हुए भी कि द्वारिका के इन सब परद्रव्यों में से कोई भी हमारा नहीं है। इन सबसे भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा हमारा है, तब भी मोहवश दोनों व्याकुल होकर बोलने लगे – “अरे ! हमारे महल और रानियाँ जल रही हैं, परिवार और प्रजाजन जल रहे हैं, कोई तो बचाओ ! कोई देव तो सहायता करने आओ !" ___ परन्तु सर्वज्ञदेव द्वारा देखी हुई भवितव्यता के सामने और द्वीपायन ऋषि के क्रोध के सामने देव भी क्या करेंगे ? आयु पूर्ण होने पर इन्द्र
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy