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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/४७ आत्मसाधक वीर गजकुमार (हरिवंश पुराण का एक वैराग्य प्रसंग) देवकी माता के आठवें पुत्र श्री गजकुमार श्रीकृष्ण के छोटे भाई और श्री नेमिप्रभु के चचेरे भाई थे। उनका रूप अत्यंत सुन्दर था। लोक में उन्हें जो भी देखता मुग्ध हो जाता। श्री नेमिनाथ प्रभु केवलज्ञान प्राप्त करके तीर्थंकर रूप में विचरते थे, यह उसी समय की बात है। . श्रीकृष्ण ने अनेक राजकन्याओं के साथ-साथ सोमिल सेठ की पुत्री सोमा के साथ भी गजकुमार के विवाह की तैयारी की थी। इसी समय विहार करते-करते श्री नेमिनाथ तीर्थंकर का समवशरण द्वारिका नगरी आया। जिनराज के पधारने से सभी उनके दर्शन के लिए गये। नेमिप्रभु को देखते ही गजकुमार को उत्तम भाव जागा - “अहो ! ये तो मेरे भाई !! तीन लोक के नाथ जिनेश्वर देव !! मुझे मोक्ष ले जाने के लिए पधारे हैं।" ऐसे नेमिनाथ प्रभु के दर्शन से गजकुमार परम प्रसन्न हुए। प्रभु के श्रीमुख से तीर्थंकरादि का पावन चरित्र सुना। अहो ! यह नेमिनाथ की वाणी ! विवाह के समय ही वैराग्य प्राप्त करने वाले नेमिप्रभु की वीतराग रंस से सराबोर वाणी में संसार की असारता और आत्मतत्त्व की परम महिमा सुनकर गजकुमार का हृदय वैराग्य से ओतप्रोत हो गया, वे विषयों से विरक्त हुए - “अरे रे ! मैं अभी तक संसार के विषयभोगों में डूबा रहा और अपनी मोक्ष साधना से चूक गया। अब मैं आज ही दीक्षा लेकर उत्तम प्रतिमा योग धारण करके मोक्ष की साधना करूँगा।" इस प्रकार निश्चय करके उन्होंने तुरन्त ही माता-पिता, राज-पाट तथा राज-कन्याओं को छोड़कर जिनेन्द्रदेव के धर्म की शरण ले ली। संसार से भयभीत मोक्ष के लिए उत्सुक और प्रभु के परम भक्त ऐसे उन
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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