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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/२८ राजकुमार के मित्र इस दृश्य को देखकर प्रसन्न हुए। वे यह विचार करने लगे – “यह ब्रह्मगुलाल अहिंसापालक है, वह किसी प्रकार की हिंसा नहीं कर सकता, अत: सिंह का स्वाँग निभाने में जरूर निष्फल होगा और हमारी विजय होगी। यदि वह हिंसा का कार्य करेगा तो जैन समाज से तिरष्कृत होगा। अपने धर्म से विरुद्ध जाकर वह इस प्रदर्शन को जीवहिंसा से नहीं रंग सकता।" अभी वे इस प्रकार का विचार कर ही रहे हैं कि वहाँ तो....सिंह अपने पँजे उठाकर एक छलाँग में राजकुमार के सिंहासन के पास पहुँच गया....और....एक झटके में उसने अपने पंजों से राजकुमार को सिंहासन से नीचे पछाड़ दिया। चारों ओर से करुण चीत्कार के कारण नाटक का रंग मण्डप गूंज उठा। दर्शकों का हृदय किसी भयानक घटना की आशंका से काँप उठा....और....दूसरे ही क्षण दर्शकों ने देखा कि राजकुमार का मरा शरीर सिंहासन के नीचे पड़ा है। सिंह के तीव्र पंजों का आघात वह सहन नहीं कर सका और उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी। एक क्षण में नाट्य-मण्डप का दृश्य विषाद के रूप में बदल गया....आनंद के स्थान पर शोक छा गया। सिंह का काम समाप्त हो गया था। सिंह का स्वाँग पूरा करके ब्रह्मगुलाल अब अपने वास्तविक रूप में आ गया। इस प्रकार विषाद की घनघोर छाया के साथ नाट्य-परिषद का कार्य पूरा हुआ। महाराज ने राजकुमार की मृत्यु का समाचार सुना....परन्तु वे निरुपाय थे, क्योंकि ब्रह्मगुलाल को सिंह के स्वाँग के लिए एक प्राणी के वध की मंजूरी उन्होंने स्वयं दी थी। शोक के अलावा अब उनके पास कोई दूसरा उपाय नहीं था। हाँ, एक उपाय था और वह था वैराग्य का उपाय।
SR No.032252
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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