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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-३/२७
(४)
राजकुमार नाट्यशाला में आज विशेष श्रृंगार करके आया था राजकुमार स्वयं एक सुन्दर सिंहासन पर बैठा था, उसके आस-पास मित्रमण्डली बैठी थी । नागरिक भी आज सभा मण्डप में सिंह का वास्तविक स्वाँग देखने के लिए उत्सुकतापूर्वक आ रहे थे। थोड़ी देर में सभा मण्डप खचाखच भर गया । राजकुमार के मित्रों की सूचना से एक बकरा मँगाकर सिंहासन के बाजू में ही बाँध दिया गया था ।
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उपस्थित जनता सिंह के असली स्वाँग को देखने के लिए आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी ।
अचानक एक भयानक सिंह ने छलाँग मारकर सभा मण्डप में प्रवेश किया। लोग उसे आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे । वैसा ही रूप, वैसा ही भाव, वैसा ही तेज और वैसा ही पराक्रम था । सिंह का भयानक रूप देखकर सभासद थोड़ी देर तो स्तंभित ही रह गये । बालक इस सिंह का विकराल रूप देखकर भयभीत होकर भागने लगे, जबकि यह तो सिंह का सारा बनावटी स्वाँग था तो भी उसमें सिंह की सभी क्रूर चेष्टायें समाहित थीं। सिंह आकर राजकुमार के सामने तीव्र गर्जना करके थोड़ी देर तक खड़ा रहा।
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सिंह की तीव्र गर्जना और भयानक रूप देखकर राजकुमार डरा नहीं, बल्कि उसने सिंह को वैसा का वैसा खड़ा देखकर उग्र स्वर में कहा“अरे ! तू कैसा सिंह है ? सामने बकरा बँधा है और तू इस प्रकार गधे के समान चेष्टा रहित खड़ा है। क्या यही सिंह का पराक्रम और शक्ति है ? नहीं, सचमुच तू सिंह नहीं, यदि तू सिंह होता तो क्या यह बकरा तेरे सामने इस प्रकार जीवित रह सकता था ?"
राजकुमार के शब्दों को सुनते ही.... सिंह की आँखें लाल हो गयीं.... और अपने पंजों को उठाकर वह कूदा .... ।