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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/७९ कैसा ? देहादि मेरे नहीं हैं, मैं तो अतीन्द्रिय चैतन्य हूँ, मेरी अतीन्द्रिय शांति को हरनेवाला कोई है ही नहीं । " - - ऐसा कहकर वे दोनों मुनि अपनी आत्म-शांति में एकाग्र हो गये। तब परम धैर्यपूर्वक दोनों मुनि देह के ममत्व को छोड़, परम वैराग्य से आत्मभाव में रम गये । भील उन्हें मारने के लिए शस्त्र उठाने लगा, ठीक उसी समय वन का राजा वहाँ पहुँचा और उसने भील को भगाकर दोनों मुनिराजों की रक्षा की । वन का राजा पूर्वभव में एक पक्षी था, उसे शिकारी के जाल से इन दोनों भाइयों ने बचाया था, उस उपकारी संस्कार के कारण उसे सद्बुद्धि उपजी और उसने मुनियों का उपसर्ग दूर कर उनकी रक्षा की । उपसर्ग दूर होते ही दोनों मुनिराज श्री सम्मेदशिखरजी की यात्रा करके रत्नत्रय की आराधना पूर्वक, समाधि-मरण पूर्वक स्वर्ग गये । दुष्ट भील का जीव दुर्गति में गया और उसने घोर दुःख प्राप्त किया। उसके बाद कुतप के प्रभाव से ज्योतिषी देव हुआ । अब वे उदित और मुदित (देशभूषण और कुलभूषण) दोनों भाइयों के जीव स्वर्ग की आयु पूर्ण कर एक राजा के यहाँ रत्नरथ और विचित्ररथ नाम के कुमार हुए। भील का जीव भी ज्योतिषी देव की आयु पूर्ण कर इन दोनों का भाई हुआ। देखो, कर्म की विचित्रता ! किसको कहें बैरी, किसको कहें भाई ! इस समय भी पूर्व के बैर संस्कार से वह उन दोनों भाइयों के प्रति बैर रखने लगा। इससे दोनों भाइयों ने उसे देश निकाला दे दिया । वह भी-तापस हुआ और विषयांध होकर मरा । अनेक भवों में रुलते - रुलते फिर ज्योतिषी देव हुआ । उसका नाम अग्निप्रभ था । इधर रत्नरथ और विचित्ररथ - ये दोनों भाई वैराग्य धारण कर राजपाट छोड़कर मुनि हुये.... और समाधि मरण पूर्वक स्वर्ग गये। -
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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