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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/७६ की प्रसन्नता का तो पार ही नहीं। आज तो उन्होंने परमात्मा को साक्षात् देखा है, फिर हर्ष की क्या बात कहना ? घर आकर अपने महान हर्ष की बात उन्होंने माता से कही - “अहो माँ ! आज तो मैंने परमात्मा को साक्षात् देखा है। अहा, कैसा अद्भुत उनका रूप ! कैसी उनकी परमशांत मुद्रा ! और कितना अच्छा उनका उपदेश ! माँ, आज तो मेरा जीवन धन्य हो गया।" तब माता अंजना कहती है - “वाह बेटा ! अरहंतदेव के साक्षात् दर्शन हुए, तब तो तेरे धन्य भाग हैं और उनके स्वरूप को जो समझे, उसको तो भेद-ज्ञान हो जाता है।" हनुमान कहते हैं - "वाह माता ! तुम्हारी बात सत्य है। अरहंत परमात्मा तो सर्वज्ञ हैं, वीतराग हैं, उनके द्रव्य में, गुण में, पर्याय में सर्वत्र चैतन्यभाव ही है। राग का अंशमात्र भी उनकी आत्मा में नहीं है, इसलिए उसे समझकर जो अपने आत्मा को राग से भिन्न सर्वज्ञस्वभावी जानते हैं, उन्हें ही सम्यग्दर्शन होता है। भगवान भी ऐसा ही कहते हैं कि - जो जानते अरहंत को, चैतन्यमय शुद्धभाव से। वे जानते निजतत्त्व को, समकित लिये आनंद से। माता ! मुझे मेरे अनुभवगम्य हुई यह बात श्रीप्रभु की वाणी में सुनते ही महान प्रसन्नता हुई है। माता अंजना भी पुत्र की प्रसन्नता को देखकर आनंदित हुई, और कहा – “वाह बेटा ! भगवान के प्रति तुम्हारा ऐसा प्रेम देखकर मुझे खुशी हुई है। भगवान की वाणी में तुमने और क्या सुना ? उसे तो बताओ?" हनुमान ने अत्यंत उल्लासपूर्वक कहा – “अहो, माता ! भगवान की वाणी में आत्मा के अद्भुत आनंद का स्वरूप एवं वीतराग रस से भरे हुए चैतन्य तत्त्व की गंभीर महिमा सुनकर भव्यजीव शांत रस की नदी में सराबोर हो जाते थे। माता वहाँ कितने ही मुनिराज विद्यमान थे।
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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