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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/७५ के भी टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। ऐसे दुःखों से आत्मा को छुड़ाने के लिए हे जीवो! तुम आत्मा को समझो, उसकी श्रद्धा करो और शुद्धोपयोगरूप अनुभव करो; शुद्धोपयोगरूप आत्मिक धर्म का फल मोक्ष है। जीव कितना ही पुण्य करके देवगति में जाता है; परन्तु वहाँ भी अज्ञानता से बाह्य वैभव में ही मूर्छित रहता है और आत्मा के सच्चे सुख को नहीं जानता। अरे, अभी यह दुर्लभ अवसर धर्म करने के लिए मिला है, इसलिए हे जीवो ! अपना हित कर लो ! संसार समुद्र में खोया हुआ मनुष्यभवरूपी रत्न फिर हाथ में आना बहुत दुर्लभ है। इसलिए तत्त्वज्ञान पूर्वक मुनि या श्रावक धर्म का पालन करके आत्मा का हित करो।" इसप्रकार अनंतवीर्य केवलीप्रभु की दिव्यध्वनि हनुमान एकाग्रचित हो सुन रहे हैं और परम वैराग्यरस में सराबोर हो गये हैं। ऐसा सुन्दर वीतरागी धर्म का उपदेश सुनकर देव, मनुष्य और तिर्यंच सभी आनंदित हो रहे हैं। कितने ही जीव मुनि होते हैं ; कितने ही जीव श्रावक के व्रत धारण करते हैं और कितने ही कल्याणकारी अपूर्व सम्यक्त्व धर्म को प्राप्त होते हैं। हनुमान, विभीषण आदि ने भी उत्तम भावना से श्रावक व्रत धारण किये। हनुमान को मुनि होने की भावना थी, परन्तु उनका माता-अंजना के प्रति परम स्नेह होने से वे मुनि न हो सके। अरे, संसार का स्नेह-बन्धन ऐसा ही है। भगवान का उपदेश सुनकर बहुत से जीवों में सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र खिल उठा, जैसे बरसात होने पर बगीचे खिल उठते हैं, वैसे ही जिनवाणी की अमृत वर्षा से धर्मात्मा जीवों के आनंद-बगीचे.....श्रावक धर्म तथा मुनि धर्म के पुष्पों से खिल उठे। इसप्रकार केवलीप्रभु की सभा में आनंद से धर्म श्रवण करके और व्रत-नियम अंगीकार करके सब अपने-अपने स्थान चले गये। हनुमान
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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