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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/२६ हुए कहता है- "कुंवरजी ! आप निश्चल नेत्रों से मुनि की ओर क्या देख रहे हो ? अरे, आप भी ऐसी मुनिदशा धारण क्यों नहीं कर लेते । " वज्रबाहु तो मुनिदशा की भावना भा ही रहे थे । उसने तुरन्त ही कहा- “वाह भाई ! तुमने अच्छी बात कही, मेरे मन में जो भाव था, उसे ही तुमने प्रकट किया, अब तुम्हारा भाव क्या है - उसे भी कहो ।” उदयसुंदर ने उस बात को मजाक समझकर कहा - "कुंवरजी ! जैसा तुम्हारा भाव, वैसा ही मेरा भाव ! यदि तुम मुनि हुए तो मैं भी तुम्हारे साथ मुनि होने के लिए तैयार हूँ । परन्तु देखो ! तुम मुकर न जाना !!" (उदयसुंदर तो मन में अभी ऐसा ही समझ रहे थे कि वज्रबाहु को तो मनोदया के प्रति तीव्र राग है- ये क्या दीक्षा लेंगे ? अथवा उसने तो हँसी-हँसी में यह बात कही थी......" शगुन के शब्द पहले " इस उक्ति के अनुसार वज्रबाहु के उत्तम भवितव्य से प्रेरित होकर वैराग्य जागृत करनेवाले यह शब्द भी निमित्त हो गये..... ।) उदयसुंदर की बात सुनते ही निकटभव्य मुमुक्षु वीर वज्रबाहु के मुख से वज्रवाणी निकली “बस अब मैं तैयार हूँ... इसीसमय मैं इन मुनिराज के पास जाकर - मुनि दीक्षा अंगीकार करूँगा । वज्रबाहु आगे कहते हैं- "इस संसार और भोगों से उदास होकर मेरा मन अब मोक्ष में उद्यत हुआ है.... संसार या सांसारिक भाव अब स्वप्न में भी नहीं दिखते... मैं तो अब मुनि होकर यहीं वन में रहकर मोक्षपथ की साधना करूँगा । "
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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