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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - २ /२५ अद्भुत मोक्षसुख का वेदन कर रहे हैं। शांतरस की मस्ती में मस्त हैं, तप के द्वारा शरीर दुर्बल हो गया है, तो भी चैतन्य के तेज का प्रताप सर्वांग से शोभित हो रहा है..... हिरण और सर्प शांत होकर उनके पास बैठे हैं। अरे, उनकी शांत मुद्रा वन के पशुओं को भी ऐसी प्रिय लगती है कि वे भी शांत होकर बैठ गये हैं । मुनि को देखकर कुमार वज्रबाहु विचार करते हैं " वाह ! धन्य है मुनिराज का जीवन ! वे आनंद से मोक्ष की रचना कर रहे हैं और मैं संसार के कीचड़ में फँसा हूँ, विषय-भोगों में डूब रहा हूँ, इन भोगों से हटकर मैं भी अब ऐसी योगदशा धारण करूँगा, तभी मेरा जन्म सफल होगा। इससमय सम्यक् आत्मभान होने पर भी, जैसे कोई चंदनवृक्ष जहरीले सर्प से लिपटा हो - ऐसा मैं विषय-भोगों के पापों से घिरा हुआ हूँ। जैसे कोई मूर्ख पर्वत के शिखर पर चढ़ कर ऊँघे ..... वैसे ही मैं पाँच इन्द्रियों के भोगरूपी पर्वत के भयंकर शिखर पर सो रहा हूँ। हाय ! हाय !! मेरा क्या होगा ? धिक्कार है.... धिक्कार है. करानेवाले इन विषय - भोगों को । भवभ्रमण अरे, मैं एक स्त्री में आसक्त होकर मोक्षसुन्दरी को साधने में प्रमादी हो रहा हूँ... लेकिन क्षणभंगुर जीवन का क्या भरोसा ? मुझे अब प्रमाद छोड़कर यह मुनिदशा धारण करके मोक्ष साधना में लग जाना चाहिये.....।" ऐसे वैराग्य का विचार करते-करते वज्रबाहु की नजर मुनिराज के ऊपर स्थिर हो गई, वे मुनि भावना में ऐसे लीन हो गये कि आस-पास उदयसुंदर और मनोदया खड़े हैं, उनका ख्याल ही नहीं रहा। बस ! मात्र मुनि की ओर देखते ही रहे..... और उनके समान बनने की भावना भाते रहे । - - यह देखकर, उनका साला उदयसुंदर हँसता हुआ मजाक करते
SR No.032251
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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