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________________ २६ योगबिंदु विवेचन : इसलिये दृष्टविरुद्ध अदृष्टवचन नहीं लेना, क्योंकि दृष्टादि प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम प्रमाण के अनुसार जो वस्तुतत्त्व-आत्मादि का परिणामित्व स्वभाव फलित होता है, उसे स्वीकार करके तत्त्व की व्यवस्था करें तो शास्त्रान्तरों में 'पुरुष' 'क्षेत्रविद्' 'ज्ञान' 'आत्मा' के और 'अविद्या' 'प्रकृति' तथा 'कर्म' के नाम भिन्न-भिन्न होने पर भी तत्त्वव्यवस्था यथार्थ घटित हो जाती है अभिप्रायः यह है कि आत्मा को किसी दर्शन में 'पुरुष' कहा है, किसी ने उसे 'क्षेत्रविद्' माना है और कोई उसे 'ज्ञानस्कन्धरूप' मानता है, कोई उसे 'आत्मा' कहता है। इसी प्रकार कर्म को किसी भी नाम से सम्बोधित करे हमें कोई हानि नहीं, परन्तु आत्मा का परिणामित्व स्वभाव है, उसे हर हालत में मानना पड़ेगा। परिणामी स्वभाव स्वीकार करने पर शास्त्रान्तर में उक्तिभेद-शब्दभेद होने पर भी साध्य मोक्ष का अभेद होने से तत्त्वव्यवस्था सुन्दर घटित होती है ॥२७॥ अमुख्यविषयो यः स्यादुक्तिभेदः स बाधकः हिंसाहिंसादिवद्यद्वा, तत्त्वभेदव्यपाश्रयः ॥२८॥ अर्थ : जो उक्ति भेद अप्रधान विषयक हो (परमार्थ के अनुकूल न हो) वह बाधक होता है जैसे कि हिंसा और अहिंसा के विषय में या तत्त्वभेद के विषय में बाधक होता है ॥२८॥ विवेचन : जो उक्तिभेद परमार्थ मोक्ष के अनुकूल न हो वह बाधक होता है (मान्य नहीं होता) जैसे कोई शास्त्र अहिंसा का विधान करता है। कोई हिंसा का भी विधान करता है। जैन "अहिंसा परमो-धर्मः" अहिंसा को परम धर्म मानते हैं, लेकिन मीमासंक-जैमिनी आदि "वैदिकी हिंसा को भी धर्म मानते हैं, परन्तु हिंसा परमार्थ दृष्टि - आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर मोक्ष के अनुकूल हो नहीं सकती, अतः वचनभेद में अर्थभेद मानना पड़ेगा । इसी प्रकार तत्त्व के प्रकार के विषय में भी यदि वचनभेद हो तो अर्थभेद भी स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि तत्त्वव्यवस्था में भी नैयायिक सांत और वैशेषिक छः पदार्थ मानते हैं और उसे एकान्त भिन्न मानते हैं । सांख्यवादी सत्त्वरजतम रूप त्रिगुणात्मक प्रकृति और प्रकृति से महत्त्व उससे अहंकारादि चौबीस तत्त्व और पुरुष को कूटस्थनित्य ऐसे २५ तत्त्व मानते हैं । इस प्रकार के उक्तिभेद अमुख्यविषयक होने पर भी परमार्थ के अनुकूल न होने से बाधक है ॥२८॥ मुख्ये तु तत्र नैवासौ, बाधकः स्याद्विपश्चिताम् । हिंसादि-विरतावर्थे, यमव्रतगतो यथा ॥२९॥ अर्थ : परन्तु मुख्यविषयक अर्थात् परमार्थ के अनुकूल उक्ति भेद बुद्धिमानों के लिये बाधक नहीं होता है जैसे हिंसा आदि की 'विरति' के लिये 'यम' व्रतगत उक्ति भेद बाधक नहीं है ॥२९॥ विवेचन : अध्यात्म को जिस उक्ति से कोई ठेस न पहुंचती हो, कोई हानि या बाधा या विरोध नहीं आता हो, ऐसा उक्ति भेद बुद्धिमानों को मान्य है । जैसे "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रह
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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