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________________ १४८ १४९ १५० १५० १५१ २५५ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५६ १५७ २४७-२४८ उस योग स्वरूप के जानने वाले अभिमान नहीं रखते २४९ आत्मशुद्ध भाव की वृत्ति विनाश नहीं प्राप्त करती है २५० विषय शुद्धानुष्ठान भी उपचार से योग के अंग का कारण होता है २५१ अनुष्ठान के योग्य अधिकारी कौन गिने जाते हैं २५२ अपुनर्बंधक जीवात्मा क्या कर सकती है २५३-२५४ सम्यक्दर्शन के चिह्नों का स्वरूप तथा विवेचन परमात्मा के वचन उपदेश का सामर्थ्य २५६-२५७ ___ समकित के प्रथम दो चिह्न २५८-२५९ धर्म से विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले में भी धर्म किस प्रकार होता है २६० समकित के नाम लिंग का स्वरूप २६१-२६२ देव-गुरु की पूजा में प्रेम भावना कैसी होती है २६३-२६४ जीव समकित दृष्टिवाला कैसे होता है, उसके तीन कारण २६५-२६६ ये कारण जीवात्मा कब करती है २६७-२६८ समकिती जीव को कर्मबंध मिथ्यात्वी से कम क्यों होता है २६९ ग्रंथीभेदी को कर्म का अल्पबंध होता है २७०-२७१ बौद्ध ऐसी समकिती अवस्था को बोधिसत्व कहते हैं २७२-२७३ दोनों ही शास्त्रों में इस प्रकार के जीवों के लक्षण समान बताए हैं २७४ इस बारे में पक्षभेद बताते हैं २७५-२७६ भव्यत्व किसे कहा जाता है २७७-२७८ जीव में रही हुई योग्यता ही तथाभव्यत्व है इस स्वभाव से जीवों में भेद पड़ते हैं २८०-२८१ अपूर्वकरण से ग्रंथिभेद करते हैं २८२-२८३ ग्रंथिभेद किसे कहा जाता है २८४ अपुनबंधक का स्वरूप २८५-२८६ संसार में दुःखी होती जीवात्माओं के बारे में भावी तीर्थंकरों की कैसी भावना होती है १५८ १५९ १६० १६० १६२ १६२ १६३ २७९ १६४ १६५ १६६ १६७ १६७
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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