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________________ (४) तद्धेतु अनुष्ठान :- तात्त्विक अनुष्ठान पर राग होना और उस प्रकार के भावों से युक्ति क्रिया को तद्धेतु या सदनुष्ठान कहा है। इसमें शुभभाव का अंश होता है । (५) अमृतानुष्ठान :- जिनेश्वर प्ररूपित, शुद्ध श्रद्धा प्रधान, अत्यंत संवेगगर्भित अमृत अनुष्ठान कहा है । अनुष्ठान I चरमावर्तकाल में जीव में चतुर्थ सदनुष्ठान होता है । इस अवस्था में आत्मा अल्पमलवाला होता है । क्योंकि योगमार्ग में भावशुद्धि का ही विशेष महत्त्व है । भावशुद्धि होने पर निश्चित ही बंध अल्प- अल्पतर होने लगते हैं । कदाग्रह छूट जाता है। तब जीवात्माओं के सभी अनुष्ठान कल्याणकारी होते हैं । आग्रह की निवृत्ति होने पर अति उत्तम शुभभावों द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि होती है और उसके कारण अनुष्ठान क्लेशकारक नहीं होते हैं । ऐसे आग्रह रहित जीव ही संसार - परिभ्रमण करते हुए अंतिम आवर्त में प्रवेश करते हैं। तब जीव में स्वभावतः दोषों की निवृत्ति होने लगती है, गुणों से संपन्न होने लगता है । यहाँ उदारता, दाक्षिण्यता, विनय, विवेक आदि गुणों की वृद्धि होने लगती है । देवपूजा, गुरुभक्ति, तप, जप, व्रत, पच्चक्खाण, दान आदि कार्यों में रूचि पैदा होती है और उनकी क्रिया क्रमश: उत्तम कोटि की होने लगती है और उसी को धर्म के अधिकारी अर्थात् अपुनबंधक कहा गया है । को योगमार्ग में प्रवेश करने वाले साधक में विशिष्ट गुणों की उत्पत्ति होती है। अब उसे क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि कषाय बाधा नहीं पहुँचाते हैं । चित्त शान्त हो जाता है । आशय शुद्ध एवं महान होता है और हृदय विशालभाव युक्त होने के कारण बुद्धि मार्गानुसारी सरल भावों से युक्त तथा विशिष्ट गुणों से युक्त होती है । साधक को यही विशेष लाभ प्राप्त होता है । उक्त गुणों वाला साधक अब सांसारिक सुखों के प्रति आसक्त नहीं होता है । संसार के सभी पदार्थों के प्रति वैराग्य प्राप्त होता है । भ्रांति की निवृत्ति हो जाती है और मुक्ति के प्रति राग पैदा होता है । ऐसी स्थिति में प्रतिस्रोतानुगामित्व भाव से प्रतिदिन योग वृद्धि पाता है । इस अवस्था को समझाने के लिए आचार्यश्री ने क्षुभित महासमुद्र का दृष्टान्त दिया है। जैसे समुद्र में ज्वार आने से नदी का प्रवाह उल्टा होने पर जल की वृद्धि होती है इसी प्रकार प्रकृति की तरफ मन और इन्द्रिय का प्रवाह बहता था वह प्रकृति का संबंध छोड़ने से पीछे की ओर मुड़ा हुआ भाव का प्रवाह आत्मस्वरूप में वृद्धि पाता है । ऐसे जीवों को भिन्नग्रंथी जीव भी कहा है । अर्थात् चित्त की अति तीव्र राग-द्वेषमय ग्रंथी को जिसने भेद डाला है। भिन्नग्रंथी जीवों का मन मोक्ष में और तन संसार में होता है । योग के अन्य तीन प्रकार : शुद्ध अनुष्ठान, सत्शास्त्र-परतंत्रता एवं सम्यक् श्रद्धा ये तीन योग के प्रकार हैं । १६
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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