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________________ क्षद्रो लाभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो भवाभिनन्दी स्यानिष्फलारम्भसङ्गतः ।।८७॥ क्षुद्र, लाभरत, दीन, मत्सरी-ईर्ष्यालु, भयवान्, शठ, अज्ञानी-मूर्ख और निष्फल कार्यों में संलग्न रहनेवाले प्राणी भवाभिनन्दी होते हैं । इसका वर्णन करते हुए कहा है कि ऐसे जीवों की धर्मप्रवृत्ति निर्गुण से प्रेरित होने के कारण दूषित होती है। अपने इस मत के समर्थन में आचार्यश्री ने गोपेन्द्र के मत का उल्लेख किया है। वर्तमान में गोपेन्द्र नामक किसी योगीराज के कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और ऐसा नाम अन्य परंपरा में भी प्राप्त नहीं होता है अतः आवश्यकता है कि इस विषय में अधिक संशोधन किया जाय । अध्यात्मप्राप्ति के उपाय : जीव पर प्रकृति का प्रबल प्रभाव छाया हुआ है । अचरमावर्त काल में उस प्रभाव को नष्ट करना अति दुष्कर है किन्तु जब जीव चरमावर्त में प्रवेश करता है तब प्रकृति का प्रभाव क्षीण होने लगता है। अध्यात्म की प्राप्ति होती है। अध्यात्म की प्राप्ति के लिए आचार्यश्री ने पूर्वसेवा का निर्देश किया है। अन्य शास्त्रों में देव-गुरु आदि का पूजन, दान, सदाचार, तप और मुक्ति में अद्वेष को पूर्व सेवा कही है। आचार्यश्री ने इन सभी आचारों का विस्तार से वर्णन किया है। यह वर्णन अत्यन्त रोचक है, तर्कबद्ध है और साधक के लिए मार्गदर्शक भी है। इन सभी सद्गुणों का आसेवन करने से अध्यात्म सिद्धि होती है। अत: आचार्यश्री ने पूर्वसेवा को अत्यंत आवश्यक माना है । संसार में भवाभिनन्दिता से कोई भी क्रिया की जाय तो वह लाभप्रद नहीं होती है। संसार की आसक्ति से क्रिया करने वाले के मन में तथा विवेकहीनता से योग का आचरण करने वाले के मन में आत्मगुणों की साधना का भाव न होने के कारण सभी प्रकार की धर्मक्रिया दूषित हो जाती है । जैनधर्म में क्रिया को अनुष्ठान कहा है । इस प्रकार की वृत्ति से की जाने वाली क्रिया को असदनुष्ठान एवं सद्भावना से युक्त क्रिया को सदनुष्ठान कहा है। अनुष्ठान के पाँच प्रकार हैं (१) विषानुष्ठान (२) गरल अनुष्ठान (३) अनध्यवसायात्मक अनुष्ठान (४) तद्धेतु अनुष्ठान (५) अमृतानुष्ठान । (१) विषानुष्ठान :- आत्मा के शुद्ध अध्यवसायों का लब्ध्यादि की अपेक्षा से जो विनाश होता है, वह अल्प लाभ के लिए महाप्रयास की तरह लघुता लाने वाला विष समान अनुष्ठान है। (२) गरल अनुष्ठान :- देव संबंधी भोगों की अभिलाषा से जो धर्मानुष्ठान किए जाते हैं वे आत्मा के शुद्ध परिणामों के नाशक और कालान्तर में अधःपतन का कारण बनता है इसलिए इसे गरल अनुष्ठान कहा है । (३) अनध्यवसायात्मक अनुष्ठान :- विवेक शून्य व्यक्ति की धर्मक्रिया को अननुष्ठान कहा है। इस प्रकार में मन की स्थिति किंकर्तव्यमूढ़ जैसी होती है ।
SR No.032246
Book TitlePrachin Stavanavli 23 Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHasmukhbhai Chudgar
PublisherHasmukhbhai Chudgar
Publication Year
Total Pages108
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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