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________________ [ १२८] लहे पार । देवगुरु धर्म नवि ओलखे, ज्ञान विना कर्म विष थई ॥३॥ नवतत्वादिक जीवविचार, हैडा उपर देयसार । साधु श्रावकनो शुद्ध आचार, ज्ञान लहि जीव भवनो पार ॥ ३ ॥ आत्मा आठ प्रकारना कह्या, समकित दृष्टि ते सद्दया । द्रव्य आत्मा पहेलो जाण, बीजे कषाय आत्मा प्रधान ॥ ४ ॥ जोग आत्मा त्रीजे सही, उपयोग आत्मा चोथो अहिं । ज्ञान आत्मा पांचमो सार, दर्शन आत्मा छटो धार ॥ ५ ॥ चारित्र आत्मा सातमो वरो, वीरज आत्मा अष्टम मन धरो । चार ज्ञेय उपादेय दोय, हेय दोयं उत्तमने होय ॥ ६ ॥ जिनवर भाषित सर्व विचार न लहे ज्ञान विना निरधार । ज्ञान पंचमी आराधे भली, विधि महित नर दूषण वली ।। ७ ॥ वरदत्त गुणमंजरीने जुत्रो, कर्म बंधन पूरव भव हुओ। गुरु वचने अाराधी सही, सौभाग्य पंचमी मन गहगही ॥८॥ रोग गयो सुख पाम्या बहु, ए अधिकार प्रसिद्ध शु कहुं । संयम लेइ विजयंते जाय, एकावतारी ते वेउ थाय ॥ ९॥ महाविदेह मांही ते अवतरी, सयम लेइ शिवनारी वरी । एणी पेरे. आराधे ज्ञान, ते पामे निश्चय निर्वाण ॥ १० ॥ मानव भव लेइ करो धर्म, जीम तुम छुटे सघलां कर्म । ऋद्धि कीर्ति वाधे घणी, अमृत पदना थावो धणी ॥ ११ ॥
SR No.032213
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Sazzay Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShiv Tilak Manohar Gunmala
PublisherShiv Tilak Manohar Gunmala
Publication Year1964
Total Pages208
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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