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________________ [११७ ] अवधे प्रभुने जोवे रे ।। सा० ॥ ६ ॥ करी वंदन ने इन्द्र सन्मुख, सात आठ पग आवे रे । शकस्तव विधि सहित भणीने, सिंहासन सोहावे रे ।। सा० ॥ ७ ॥ संशय पडिया एम विमाशे, जिन चक्री हरि रामरे। तुच्छ दारिद्र माहणकुल नावे, उग्र भोग विना धामे रे ॥ सा० ॥८॥ अन्तिम जिन माहणकुल आव्या, एह अछेरु कहिये रे। उत्सर्पिणी अवसर्पिणी अनंती, जातां एहवु लहिये रे ॥ सा० ॥ ९ ॥ एणी अवसर्पिणी दश अच्छेरां, थया ते कहिये तेहरे । गर्भ हरण गोशाला उपसर्ग, निष्फल देशना जेह रे ॥ सा० ॥ ॥१०॥ मूल विमाने रवि शशि आव्या, चमरानो उत्पातरे। ए श्री वीर जिनेश्वर वारे, उपन्या पंच विख्यातरे ॥सा०॥ ॥ ११ ॥ स्त्री तीर्थ मल्ली जिनवारे, शीतल ने हरिवंश रे। ऋषभ अट्ठोत्तरसो सिध्या, सुविधि असंयति शंसरे ॥१०॥ ॥१२॥ शंख शब्द मलीया हरि हरिशु, श्री नेमीश्वरने वारे । तेम प्रभुजी नीच कुले अवतरिया, सुरपति एम विचारे रे ।। सा० ॥ १३ ॥ ++++ + ढाल दूसरी (राग - नदी यमुना के तीर) भव सत्तावीस थूलमांहि तीजे भवे, मरिची क्रीयो कुलनो मद भरत यदा स्तवे। नीच गोत्र कर्म बांध्यु तिहां तेहथी,
SR No.032213
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Sazzay Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShiv Tilak Manohar Gunmala
PublisherShiv Tilak Manohar Gunmala
Publication Year1964
Total Pages208
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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