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________________ ( २२ ) ॥ भवि० ॥१॥ बीसे ढूंक की यात्रा करता जनम मरण दुख जाय ॥ भवि० ॥२॥ लक्ष्मण पुर से श्रीसंघ हर्षे यात्रा करन चितलाय ॥ भवि० ॥ ३ ॥ संवत अठारे बानवें वर्षे माघ तेरस रविवार ॥ भवि० ॥ ४ ॥श्री जिन चन्द्र कृपाकर प्रभु जी नंदी वर्द्धन गुण गाय ॥ भवि० ॥५॥ ॥ अथ परमातमा छत्तीसीं ॥ परमदेव परमातमा परम ज्योति जगदीस । परम भाव उर पान के प्रणमत हों निसदीस ॥१॥ एक जु चेतन द्रव्य है तिनमें तीन प्रकार । बहिरातम अन्तर पातमा कहे परमानम पद सार ॥ २॥ बहिरातम तोको कहै लखे न ब्रह्म स्वरूप । मगन रहे पर द्रव्य से मिथ्यावन्त अनूप ॥ ३ ॥ अन्तरात्मा जीव सों सम्यग दृष्टि होय । चौथे अरु पुनि बार में गुण थानक ले सोय ॥ ४॥ परमातम पद ब्रह्म को प्रगट्यो शुद्ध स्वभाव। लोकालोक प्रमाण सब झलके जिनमें प्राय ॥ ५ ॥ बहिरातम भाव तजी अन्तर पातमा होय । परमातम पद भजत हैं परमातम सोई होय ॥६॥ परमातम सोही पातमा और न दूजो कोय । परमातम को ध्यावते यह परमातम होयं ॥ ७॥ परमातम यह ब्रह्म है परम ज्योति जगदीस । परसों भिन्न निहारिये जो अलख सो ही ईश ॥ ८॥ जो परमातम सिद्ध मैं सो ही यां मन मांहि । मोह मैल ग लागि रहयो ताते सूझत नाहि ॥ ६ ॥ मोह मैल रागादि को
SR No.032212
Book TitlePrachin Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRampal Yati
PublisherUmravsinh Dungariya
Publication Year1933
Total Pages36
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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