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________________ [ ७५ ] गच्छना भेद बहु नयण निहालतां, तत्वनी वात करतां न लाजे; उदर भरणादि निज काज करतां थकां मोह नडीया कलिकाल राजे; ॥ धार० ॥ ३ ॥ वचन निरपेक्ष व्यवहार जूठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार साचो; वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार कल, सांभली आदरी कांइ राचो ॥ धार० ॥ ४ ॥ देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे, किम रहे शुद्ध श्रद्धा न आणो; शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया कही, छार परे लींपणुं तेह जाणो, ॥ धार० ॥ ५ ॥ पाप वहीं कोई उत्सुत्र भाषण, जिस्युं, धर्म नहि कोई जग सूत्र सरिखो; सूत्र अनुपार जे भविक किरिया करे, तेहनु शुद्ध चारित्र परखो; ।। धार० ॥ ६ ॥ अह उपदेश नो सार संक्षेप थी, जे नरा चित्त में नित्य ध्यावे, ते नरा दिव्य बहु काल सुख अनुभवी नियत आनंदधन राजपावे ।। धार० ।। ७॥ (१५) धर्मनाथ जिन स्तवन ( १ ) धर्मजीनेश्वर गाउ रंगशुं, भंग म पडशो हो प्रीत जिनेश्वर; बीजो मन-मंदिर आणुं नहीं, अ अम कुलवट रीत जिनेश्वर || १|| धरम घरम करतो जग सहुफिरे, धरम न जाणे हो मर्म जिनेश्वर; धरम जिनेश्वर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बाँधे हो कर्म जिनेश्वर
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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