SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ७४ ] (१४) श्री अनंतनाथ स्वामी जिन स्तवन (श्री ऋषभ जिणंद शुं प्रीतडी-एदेशी) अनंत जिनंद | प्रीतडी, नीकी लागी हो अमृत रस जेम; अवर सरागी देवनी, विष सरीखी हो सेवा करू केम ? ॥ अ० ॥१॥ जिन पद्मिनी मन पिउ वसे, निरधनीया हो मन धनकी प्रीत; मधुकर केतकी मन वसे, जिम साजन हो विरहीजन चित ॥ अ० ॥ २ ॥ करषणी मेध आषाढ ज्यु, निज वाछड हो सुरभि जिम प्रेम; साहिब अनंत-जिणंद शु, मुज लागी हो भक्ति मन तेम ॥अ० ॥३॥ प्रीति अनादिनी दुःख भरी, में कीधी हो पर पुद्गल संग; जगत भम्यो तिण प्रीतशु, स्वांग धारी हो नाच्यो नव नव रंग ॥अ० ॥४॥ जिसको अपना जानीया, तिने दिना हो छीन में अति छेह; परज्न केरी प्रीतडी, में देखी हो अंते निःसनेह ॥अ० ॥५॥ मेरा कोई न जगत में, तुम छोड़ी हो जिनवर जगदीश प्रीत करू अब कोन शु, तुं त्राता हो मोहे विसवावीस ॥ अ० ॥६॥ आतमराम तु माहरो सिरसेहरो हो हियडानो हार दीन दयाल. कृपा करो, मुज वेगे हो अब पार उतार ॥अ० ॥७॥ ॥२॥ धार तलवारनी सोहिली, दोहिली चउदमा जिनतणी चरण सेवा। धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवनाधार पर रहे न देवा ॥धार॥१॥ अक कहे सेवीये विविध किरिया करी, फल अनेकांत लोचन न देखे, फल अनेकांत किरिया करी बापडा, रडवडे चार गतिमांहि लेखे । धार० ॥२॥
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy