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________________ [ ८६ ] (१६) श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन पंचम सुरलोकना वासी रे, नव लोकांतिक सुविलासी रे; करे विनति गुणनी राशि ॥ मल्लिजिन नाथजी व्रत लीजे रे, भवि-जीवने शिवसुख दीजे-मल्ली० ॥ १ ॥ तुमे करुणारस भंडार रे, पाम्या छो भवजल पार रे, सेवकनो करो उद्धार मल्लि ॥२॥ प्रभु दान सवत्सरी आपे रे, जगनां दारिद्र दुःख कापे रे, भव्यत्वपणे तस थापे मल्लि• ॥३॥ सुरपति सधला मली आवे रे, मणि रयण सोवन वरसावे रे, प्रभु चरणे शीश नमावे ॥मल्लि० ॥४॥ तीर्थोदक कुंमा लावे रे, प्रभु ने सिंहासन ठावे रे, सुरपति भक्ते नवरावे ॥ मल्लिक ॥५॥ वस्त्राभरणे शणगारे रे, फूलमाला हृदय पर धारे रे, दुःखडां इन्द्राणी उवारे ॥मल्लि० ॥६॥ मल्या सुर नर कोडाकोडी र प्रभु आगे रह्या करजोडी रे; करे भक्ति युकित मद मोडी ।मल्लि. ॥७॥ मृगशिर सुदीनी अजुआली रे, अकादशी गुणनी आली रे; वर्या संयम वधू लटकाली ॥मल्लि०।८॥ दीक्षा कल्याणक अह रे, गातां दुःख न रहे रेह रे; लहे रुपविजय जस नेह ॥मल्लि० ।।९।। (२) जिनराजा ताजा मल्लि बिराजे भोयणी गाममें; देश देशके जात्र आवे, पूजा सरस रचावे; मल्लिजिनेश्वर नाम सिमरके, मनवांछित फल पावेजी ।।जिन ॥१॥ चतुर वरणके नर नारी मिल, मंगल गीत करावे जय जयकार पंचध्वनि वाजे, शिर पर छत्र धरावेजी ॥जिन
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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