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________________ [ ८४ ] में जाण्यं मे लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले; बीजी वाते समरथ छे नर, अहने कोइ न जेले हो कुं० ॥७॥ मन साध्यं तेणे सघलू साध्यु, एह वात नहीं खोटी; अम कहे साध्यं ते नवि मार्नु, अकही वात छे मोटी, हो कुं० ॥८॥ मनडु दुरा राध्य तें वश आण्युं, ते आगमथी मति आणु; आनंदघन प्रभु माहरु आणो, तो साचु करो जाणु, हो कु० ॥६॥ ____ (१८) श्री अरजिन स्तवन श्री अरजिन भवजलनो तारु, मुज मन लागे वारु रे; मनमोहन स्वामी बाह्य ग्रही जे भविजन तारे, आणी शिवपुर आरे रे, मन ॥१॥ तय जप मोह महा तोफाने, नाव न चाले माने रे; मन पण नवि भय मुज हाथोहाथे, तारे ते के साथे रे, मन ॥२॥ भकतने स्वर्ग स्वर्गथी अधिकु, ज्ञानीने फल देइर; मन० काया कष्ट विना फल लही, मनमा ध्यान घरेई रे; मन० ॥३॥ जे उपाय बहु विधनी रचना, योगमाया ते जाणो रे मन शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय ध्याने, शिव दिये प्रभु सपराणो रे मन ॥४॥ प्रभु पद वलग्या ते रहया ताजा, अलगा अंग न साजा रे; मन वाचक जश कहे अवर न ध्याऊ, मे प्रभुना गुण गाऊ रे मन० ॥५॥
SR No.032198
Book TitlePrachin Stavan Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivya Darshan Prakashan
PublisherDivya Darshan Prakashan
Publication Year
Total Pages166
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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