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________________ संधि ५ सेणिय णिवइ मगोरमहिं एत्तहिं वितहि रइ' कहि वि पएसि ण भावइ । एक्कण वि विणु वल्लहेण अइदुल्लहेण जणसंकुलु घरु वणु णावइ ।। ध्रुवकं ।। कमलजल गेउ भूसणविहि ण वि कप्तूरचंदणं । असणु ण सयणु भवणु पडिहासइ पवियंभेइ रणरणं । दुवई ।। पुणु पुणु सा पभणइ जणियताव रे रे मयरद्धय खलसहाव । छलु लहेवि तुहुँ वि महु तवहि देहु सउरिसहा होइ किं जुत्तु एहु । रुद्देण आसि तव दड ढु देहु भणु महिलहँ उप्परि को ण गोहु । पंच वि महु लाइवि हियट वाण अण्णाउ केण हणिहसि अयाण । सयवत्तवत्तलोयणविसाल जहि जहि अवलोयइ कहि वि बाल । तहि तहि आवंतउ सुहउ भाइ सुहदसणभरियउ जगु जि णा'। १० जा तहे सा तासु वि तहि अवत्य एक्कासिउ णेहु ण घडइ कत्थ । अह घडइ कह व सो थिरु ण थाइ सच्छिदए करयले सलिलु णाई। धत्ता-णियवि सुदंसणु विरहियउ रइ विरहियउ तो रिसहदासु मणे चिंतइ । ___ जइ परिणाविउ होइ सुओ गुणगणहिं जुओ तो वड्ढइ महु कुलसंतइ ।।१।। कुलसंतइए धम्म संपज्जइ धम्ने पाउ खिज्जए । पावक्खण्ण' बोहि ताप्न वि पुणु सासयपुरि गमिजए । दुवई ।। ते कज्जे गिहत्थ कुलु मण्णहि इय अवत्थ पुणु चउविहवण्यहि । तो वरकण्ण का वि जोइज्जइ . जेसा णंदणु परिणाविजइ। १. १ क मणोरमहि तहिं रई। २ क पदेसिः ख पवेसि । ३ ख परिरभेइ । ४ घणु। ५ ख लावहि । ६ क अण्णाए। ७ क पालोयइ। ८ क घ तहि; ख तह। ६ क कहवि। १० ख सुवेण गुणगणई। २. १ ख पाउखयेण। २ ख पावेविण । ३ प्रतिषु गिहत्थु' । ४ ग घ चउहु वि।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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