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________________ जयणंदिविरइयउ [ १. २. ४छुडु कीरइ जिण-संभरणु चित्तता सई जि पवट्टइ मइ कविति॑ । जल-विंदु उ णलिणीपत्तजुत्तु किं सहइ ण मुत्ताहल-पवित्तु । अंतयड सुकेवलि सुप्पसिद्ध ते दह दह संखy गुणसमिद्ध । रिसहाई-जिणिंदहँ तित्थे ताम इह होति चरिमतित्थयरु जाम । तही तिथे जाउ कयकम्महाणि पंचमु जो तहिँ अंतयडणाणि । णामेण सुदंसणु तहाँ चरित्तु पारंभिउ आयण्णहु पवित्तु । वरतिरिय लोट पिहुजंबुदीर्व सोहायमाण रविससि-पईवे। १० दक्खिणदिसाहे सुरमहिहरासु अत्थस्थि भरहु जयसिरि-णिवासु। देवुत्तर-कुरुपाविय-विसेसु तत्य वि॰ सुपसिद्धउ मगहदेसु । घत्ता- जहिँ णइउ पओहर मणहरिउ दीसहिँ मंथरगमणिउ । णाहहा सायरही सलोणहो जंतिउ" णं वररमणिउ ।।२।। जहिँ पंडुच्छुवणइँ कयहरिसइँ कामिणिवयणाइँ व अइसरसइँ । दलियइँ पीलियाइँ पर्यमलियइँ धुत्तउलाइँ गाइँ मुहगलिय। जहि वेस व कलरवमुह रत्तिय णित्तु सुकरइ धण्ण सुयपंतिय । जहि छेत्तइँ णं पहियकलत्तइँ घणसासइँ मि ण मेरण चत्त । उववणाई सुरमणकयहरिसइँ भद्दसाल णंदणवणसरिसइँ। कमलकोर्स भमरहिँ महु पिज्जइ महुयराहँ अह एउ जि छज्जइ । जहिं सुसरासण सोहियविग्गह कयसमरालीकेलिपरिग्गह। रायहंस वरकमलुक्कंठिय विलसइँ बहुविहपत्तपरिट्रिय। पत्ता-वहिँ पट्टणु णामे रायगिहु अत्थि सुरहँ णावइ णिलउ । महि-महिलष्ट णियमुहि णिम्मविउ णाईं कवोलपत्तु तिलउ ।।३।। २ २ घ पयट्टइ। ३ ख घ मुत्ताहलु विचित्त । ४ घ रिसिहाई। ५ घ तेत्थ । ६ ख तिरियए; घ तिरय। ७ ख अत्थीह; घ अत्थीहु। ८ ख तेत्थ । ६ क पवहइ । १० ख मणहरउ। ११ क भंतिउ। ३. १ ख पई। २ घ मुहगुलियइ । ३ क घ धरण । ४ ख घ वि। ५ घ एहो। ६ ख घ ससरासण। ७ ख हु। ८ ख घ विलसहि । ६ क सुरहं वि णाहि णिलउ टि° सुराणामपि न निलयः एवंभूतः ख सुरहिं वरणह घ सुरहि वएणहि ।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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