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________________ सुदर्शन-चरित ८. इस कथा की श्रुत- परम्परा इस ग्रन्थ की बुधजनों को तुष्टि देनेवाले अर्थ ( कथावस्तु ) की सृष्ट अरहन्तों ने की थी । फिर उस कथा की ग्रन्थसिद्धि, जनमनोहारी गौतम नामक गणधर ने और अनुक्रम से सुधर्म व जम्बूस्वामी, ( इन तीन केवलियों) ने, फिर स्वर्गगामी विष्णुदत्त ने, फिर नन्दिमित्र, अपराजित, सुरपूजित गोवर्द्धन और फिर भद्रबाहु परमेश्वर ( इन पांच श्रुत- केवलियों) ने, फिर विशाख मुनीश्वर, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, धर्मप्रवर्त्तक जय, नाग, सिद्धार्थ मुनि, तपश्री - रंजित धृतिसेन, विजयसेन, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ( इन ग्यारह दशपूर्वियों) ने, फिर नक्षत्र, जय को प्राप्त जयपाल मुनि, पांडु, मनोविजयी ध्रुवसेन और भयरहित कंसाचार्य ( इन पांच एकादशांग धारकों) ने, और फिर नरश्रेष्ठ सुभद्र, यशोभद्र, लोहार्य और शिवकोटि ( इन चार एकांगधारियों) ने, इस क्रम से इन सब पृथ्वीमंडल के चन्द्र गणधरदेव मुनीन्द्रों ने, तथा अन्य मुनियों ने अविकल रूप 'जैसा प्रवचन में भाषित किया है, तैसा ही मैंने यह पंचनमस्कार मंत्र के फल का कथन किया । १२. १० ] २६३ ९. कवि नयनन्दि की गुरू- परम्परा महावीर जिनेन्द्र के महान् तीर्थ में, महान् कुन्दकुन्दान्वय की क्रमागत परंपरा में सुनक्ष (नक्षत्र) नाम के आचार्य हुए । तथा तत्पश्चात् पद्मनन्दि, फिर विष्णुनन्दि, फिर नन्दिनन्दि हुए । तत्पश्चात् जिनोपदिष्ट धर्म की शुभरश्मियों से विशुद्ध अनेक ग्रन्थों के कर्ता, समस्त जगत् में प्रसिद्ध, भवसमुद्र की नौकारूप महा विश्वनन्दि हुए । तत्पश्चात् क्षमाशील सैद्धान्तिक विशाखनन्दि हुए । उनके शिष्य हुए गणी रामनन्दि, जो जिनेन्द्रागम का उपदेश देने में एकचित्त थे, तपश्चरण निष्ठ रूप लब्धि से युक्त थे, एवं नरेन्द्रों और देवेन्द्रों द्वारा आनन्दपूर्वक वंदनीय थे । उनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दि हुए जो अशेष ग्रंथों के पारगामी, तपस्वी थे, अंगों के ज्ञाता, भव्यरूपी कमलों के सूर्य, गुणों के निवासभूत एवं त्रैलोक्य को आनन्ददायी थे । उनके प्रथम शिष्य हुए जगविख्यात व अनिंद्य मुनि नयनन्दि । उन्होंने इस बुधजनों द्वारा अभिनन्दित अबाध सुदर्शननाथ के चरित्र की रचना की । १०. काव्यरचना का स्थान, राज्य व काल वनों, ग्रामों और पुरवरों के निवेश, सुप्रसिद्ध अवन्ती नामक देश में सुरपतिपुरी ( इन्द्रपुरी) के समान विबुध ( देवों या विद्वानों ) जनों की इष्ट गौरवशाली धारा नगरी है। वहां, रण में दुद्धेर शत्रु रूपी महान् पर्वतों के वज्र, ऋद्धि में देव और असुरों को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला, त्रिभुवन -नारायण- श्रीनिकेत उपाधिधारी नरेन्द्र- पुंगव भोजदेव हैं । उसी नगर में अपने मणियों के समूह की प्रभा से सूर्य
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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