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________________ २६२ नयनन्दि विरचित [ १२.७ ६. व्यंतरी व नगरजनों का सम्यक्त्वधारण व मुनिराज का मोक्षगमन तब मधुर वाणी द्वारा मुनिवर ने इस प्रकार कहा-“देव, तिथंच व नरक के जीवों को तप योग्य नहीं होता। किन्तु तेरे लिये निःशंकादि आठ गुणरूपी रत्नों का निधान एक सम्यक्त्व ही पापनाशक हो सकता है।" तब उस व्यंतरी ने दुःखहारी और सुखकारी सम्यक्त्व तुरन्त धारण कर लिया, और मिथ्यात्व को छोड़ दिया। इस आश्चर्य को सुनकर नगर के लोगों में खलभली मच गई, और वे मुनिदर्शनोत्साह के रस सहित वहाँ आ पहुँचे। उन लोगों ने ज्ञानदर्शी मुनि की वाणी सुनकर, मिथ्यात्व का परित्याग कर दिया, और उनकी स्तुति करके व्रत धारण कर लिया। तब उस पंडिता ने भी दुर्नीति से विरक्त होकर, देवदत्ता सहित उसी समय तपश्चरण धारण कर लिया। यहाँ उनकी गृहिणी ( मनोरमा ) भी, केवल ज्ञान उत्पन्न होने की बात सुनकर, तुरन्त घर छोड़ आर्यिका हो गई। फिर वह बहुत दिनों तक पीतादि शुभ लेश्या युक्त सन्यास पालन करके देवलोक को गई। सुदर्शन केवली की जो कर्मस्थितियां ( चार अघातियां कर्म ) अवशेष रही थीं, वे सब भी जली हुई रस्सी के समान थोड़े काल में ही क्षय को प्राप्त हो गई। फिर पौष मास की पंचमी तिथि को उत्तम सोमवार के दिन, धनिष्ठा नक्षत्र में एक प्रहर शेष रहने पर वे मुनि उपसर्ग सहन कर, व कर्ममल पटल को त्याग कर एक समय मात्र में लोक के अग्रभाग ( मोक्ष ) पर जा पहुंचे। वहां वे मुनीश्वर, अठारह दोषों से रहित, गुग-संयुक्त, अपने पूर्व शरीर से किंचित् न्यून आकार से निर्वाण में स्थित हो गए। वे परमेश्वर मुझे अविकाररूप से बोधि प्रदान करें। ७. पंचनमोकार का माहात्म्य क्षायिक सम्यक्त्व में अपना अनुराग बांधनेवाले, हे महाराजाधिराज श्रेणिक, जहां उत्तम पंचनमोकार में रत होकर, एक ग्वाले ने शिवसुख प्राप्त कर लिया, वहां यदि अन्य कोई भी मनुष्य शुद्धभाव से युक्त होकर, एकचित्त से पाचों पदों का ध्यान करे, और समस्त पूजाविधान भी करे, तो वह क्यों न सिद्धि रूपी वध के मन को आकर्षित करेगा ? अथवा, यदि उस दुर्लभ मोक्ष स्थान को रहने दिया जाय, तो भी इस संसार में ही वह लोगों का अनुराग प्राप्त कर लेता है। यदि कोई मंदक्रिय आलसी भी विधिवत् पूजा करे, तो ग्रह, राक्षस व भूत उसके वश में हो जाते हैं। पूजा के प्रभाव से गलगंडादिक सैंकड़ों रोग क्षय हो जाते हैं, तथा विष व उपविष दृष्टि में भी नहीं आते ; बिच्छू, सांप व मूषक नहीं डसते, विधन नहीं होते, और दुर्जन भय खाने लगते हैं। यह उपदेश सुनकर, मगधेश्वर जिनेश्वर की स्तुति करके, विपुलाचल पर्वत से उतर कर अपने राजभवन को लौट गये, और वहां ऐसे शोभायमान हुए जैसे पूर्वकाल में मंदरगिरि के सामने स्थिर भरतेश्वर साकेत में शोभायमान हुए थे।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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