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________________ २५६ नयनन्दि विरचित [११. १७. दूसरे लोहू से लथपथ मृतशरीरों पर चढ़कर चिल्लाने लगे। अन्य गलित-वस्त्र ( नग्न ) होकर व हाथ पसार कर नाचने लगे। अन्य सौ मुख, लाल आंखें और बहुत सी भुजाओं को बनाकर आए। अन्य कीड़ों से पूर्ण अति दुर्गन्धि बनकर शीघ्र मर गए। अन्य रंड बनकर अप्रमाण उड़ाने मारने लगे। तथा अन्य मुड बनकर ललकारें और हांके छोड़ने लगे। अन्य बड़ी-बड़ी डाढ़ों व विकराल भृकुटियों से युक्त मदोन्मत्त हुए, मारो-मारो कहते हुए, व अंग पर ताल ठोंकते हुए आ पहुंचे। इस प्रकार की विक्रियाओं द्वारा भूतों ने जल, थल, व आकाश को भर दिया, मानों यमने अपने को नानारूपों द्वारा दिखलाया हो। १७. महान् उपसर्गों के बीच सुदर्शन मुनि की स्थिरता इतना होने पर भी श्रमण सुदर्शन अपने योग से विचलित नहीं हुए। वे उसी प्रकार निष्कंप व अगर्व ( निर्विकार ) बने रहे, जिस प्रकार कि प्रकाशमान सुमेरु पर्वत तीक्ष्ण व चपल पवन के आघात होने पर भी अडोल बना रहता है। तब उन निशाचरों ने आकाश में ऐसा चपल मेघ उत्पन्न किया, जिससे जल बरसने लगा, सूर्य ढक गया; तथा निरन्तर जलप्रवाह से मत्स्य और मगर सब ओर दौड़ने लगे। वह मेघ चपल बिजली युक्त तड़तड़ाने तथा देवों, मृगों, वनचरों तथा विषधरों को भयभीत करने लगा। लोग त्रस्त होने लगे, शरीर सूखने लगा, और वे भयरहित वन में प्रविष्ट होने लगे। जल में, थल में, महीतल पर अत्यधिक जल बहने लगा। फिर सब लोग कहने लगे-"क्या प्रलय के दिन का अवसर आ गया ? चारों दिशाओं में पृथ्वी को भरता हुआ महान् जल प्रसार हो गया। कहां चलो, कहां भागो, कहां जिओ, और किससे कहो ? अपने पुत्रों तथा प्रियाओं सहित कहां प्रवेश करके सुख पाओ? असाधारण जलवृष्टि से महीमंडल झलझला उठा। घर और नगर बहने लगे। पर्वत शिखर टलटलाने लगे। फिर वे दुष्ट कलकलाने, गिलगिलाने, आकाश में मिलने एवं घोर ध्वनि करने लगे, तथा बार-बार अतिप्रबल हल व मुसल दिखलाने लगे। किन्तु इतने पर भी वह गुणनिधान मुनि अपने क्षण ( ध्यान ) से विचलित नहीं हुआ। (यह दश-दश लघु मात्राओं द्वारा शशितिलक नामक छंद कहा गया )। जिस मुनिनाथ ने अपने तन, मन व वचन का निरोध कर लिया, उसको भला महान् जलप्रवाह से ही कैसे वशीभूत किया जा सकता है ? १८. व्यंतरी द्वारा घोरतर उपसर्ग और मुनि की वही निश्चलता फिर उस व्यंतरी ने ऐसा महान् अनल निर्माण किया जो वृक्षों की शाखाओं के परस्पर संघर्षण से उत्पादित स्फुलिंगों से लालवर्ण हो रहा था तथा जिसने धूलि के भार से समस्त भुवनतल को भर दिया। किन्तु जब इससे भी वह धीर साधु अपने योग से विचलित नहीं हुआ, और वह अपने समस्त परिग्रह को छोड़, गुणों का आवास व गंभीर बना रहा, तब वह व्यंतरी तीव्र कोप से कांप उठी,
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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