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________________ ११. १६] सुदर्शन-चरित २५५ नाभि से उत्पन्न कमल को तोड़ा है ? किसने खड्ग से व्योमांगन को ताडित किया है ? किसने गर्व से कालाग्नि को फाड़ा है ? किसने मुष्टि से चन्द्र को गिराया है ? किसने कैलाश में विश्वेश्वर (महादेव ) पर धाड़ा मारा है ? किसने राशिगत शनिश्चर को रुष्ट किया है ? किसने चूट से समुद्र को सुखाया है ? किसने शेष नाग के फणामंडप का मर्दन किया है ? किसने अपनी शक्ति से रण में भद्र हाथी को जीता है ? किसने सुमेरु पर्वत को चलायमान किया है ? किस मूर्ख ने कालानल को प्रज्वलित किया है ? कौन ऐसा है, जो सूर्य के रथ को रोके ? और कौन है वह, जो इस मनानन्ददायी विमान को रोके ? जो कोई विमान का निरोध करता है उसका मैं सिर रूपी कमल तोड़ लूगी। कौन ऐसा कालप्रेरित है, जो मुझे क्षुब्ध करना चाहता है ? १५. व्यंतरी का पूर्वजन्म स्मरण व मुनि का उपसर्ग फिर जब उस व्यंतरी ने दशों दिशाओं में अवलोकन किया, तब उसे श्मशान में मुनिराज दिखाई दिये। उन्हें देख उसे अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त स्मरण हो आया, और वह झट से अग्नि की ज्वाला के समान प्रज्वलित हो उठी। पूर्व जन्म का स्मरण कर उस व्यंतरी ने मुनि का घोर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया-“पकड़ो, दौड़ो-दौड़ो, मारो-मारो” कहते हुए निशाचर चारों दिशाओं में किलकिलाने लगे। चारों दिशाओं में रंड दडदड़ाने लगे, मुंड हड़हड़ाने लगे, और अजगर तड़तड़ाने लगे। चारों दिशाओं में मशक (मच्छर ) गुनगुनाए, भौरे रुणरुणाए, उल्लू घू घृ करने लगे और भैंसे सू सू करने लगे। कौवे करकराए और कुत्ते गुरगुराने लगे। वानर कुलकुलाने और हाथी गुड़गुड़ाने लगे। सर्प सलसलाने, और ऊंट फिक्कार करने लगे। चारों दिशाओं में अग्नि की ज्वालाए उठने लगीं। चारों दिशाओं में रुधिर झलझलाने लगा। मुनि के चारों ओर पुनः पुनः खड्ग धारण किये हुए निशाचर घूमने लगे, मानों प्रलय के समय कल्लोलधारी सागर उछल रहे हों। १६. भूतों और वेतालों की उद्वगकारिणी माया फिर वे निशाचर नाना वेश धारण करके, दशों दिशाओं में ऐसे फैले कि माते ( समाते ) नहीं थे। वे एक क्षण में सिंह, शरभ, व व्याघ्र रूप विकराल मुख बना कर, रू-रू करते हुए दौड़े। अन्य वेताल कपाल लेकर आए, और उन्हें मुनि के व्रत को नष्ट करने के लिए उनके आगे डालने लगे। अन्य भैरुंड मांस के टुकड़े खाने लगे, और अन्य केश लहराते हुए नरशीर्ष ( मनुष्यों की खोपड़ियां ) लेने लगे। अन्य अपने नाशापुटों से, ओठों से हाथ के प्रकोष्ठों द्वारा सुसकने लगे। दूसरे मरे हुए नरकंकाल के लिए तृषित हो उठे। कोई अभद्र गधों के स्वरों से रेंकने लगे। दूसरे स्याही के समान कृष्णवर्ण व लम्बकर्ण हंसने लगे।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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