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________________ २२४ नयनन्दि विरचित [८. ३५मुसंडा, परांगना में अनुरक्त-चित्त, महामाया का दिया ( भेजा ) हुआ कहाँ से आ पहुँचा ? अरे देखो, इस बनिये ने मेरे सुन्दर अंगों को नोंच डाला। जब तक यह मुझे मार न डाले, तबतक, हे लोगो, मिलकर दौड़ो, दौड़ो।" ३५. पुरुष और स्त्री का चित्त-भेद ___ज्यों ही अभया ने पुकार मचाई, त्यों ही वणिग्वर सुदर्शन अपने मन में चिन्तन करने लगा-पुरुष अपने चित्त में उमाहा रहता है; और महिला अन्य पुरुष की वांछा करती है। पुरुष अनुरक्त होकर उसके निकट जाता है; तो महिला उसकी ओर वक्रदृष्टि से देखती है। पुरुष खूब गाढ़ आलिङ्गन करता है ; तब महिला का चित्त कहीं अन्यत्र भ्रमण करता है। पुरुष स्नेहपूर्ण सद्भाव प्रगट करता है; तब महिला कपट मिथ्याचारों द्वारा उसका मनोरञ्जन करती है। पुरुष धन लाकर घर में रखता है ; महिला उसे भी चुरा कर रखती है। पुरुष अनेक प्रकार से पूछता है; तो महिला झूठी बातें बनाकर उत्तर देती है। पुरुष अपनी गृहिणी में चित्त लगाता है ; और महिला अपने यार में आसक्त होती है। यदि पुरुष कार्यवश घर छोड़कर कहीं जाता है, तो उतने ही में महिला दुसरे घर में घूम आती है; जैसे गाय हारों ( खलिहानों ) में चरकर आ जाती है। ३६. स्त्री क्या नहीं कर सकती ? यदि गमनागमन करनेवाले पक्षियों का आकाश में, व जलचरों का पानी में चरणमार्ग दिखाई दे जाय; यदि दर्पण में प्रतिबिम्ब किसी प्रकार हाथ से ग्रहण करने में आ जावे; यदि पारे का रस सुई के मुख पर बिल्कुल स्थिर हो जावे; तो ही स्त्री का चित्त अनुरक्त होकर किसी अन्य पुरुष के ऊपर चलायमान न होवे ॥१॥ महिला काम के वश होकर न जाने क्या क्या उपाय करती और कराती है। और जब उपायों में असफल होकर विरक्त हो जाती है, तो स्वयं मर जाती है, मार डालती है या मरवा डालती है। यदि मरण की बात छोड़ दो, तो वह सैकड़ों बहानों से अपने सुहृदों को भी पकड़वा देती है, वह स्वयं को कलङ्कित करती है और दूसरों को कलङ्कित कराती है, एवं बहुत अनर्थ प्रकट करती है। वह अग्नि की ज्वालाओं के पुञ्ज समान प्रज्वलित होकर दूसरों के प्राणों का घात करा डालती है ।।२।। युवती एक नदी के सदृश विषम, वक्र, नीचरत, गहरी, बहुविभ्रम, उभयपक्षों में दूषण लगानेवाली, मन्दगति एवं सलौने (सुन्दर पुरुष व लवण समुद्र) का आश्रय लेनेवाली होती है। वह अग्नि की धूमावलि के सदृश उत्तम घर को मैला करनेवाली तथा साहंकार ( अहंकारयुक्त तथा अंधकारपूर्ण काली) होती है, एवं विषशक्ति के समान मरणकारिणी तथा तलवार की धार के समान तीखी होती है ॥३॥ जिस प्रकार हरिण के सींगों, बांस के मूलों, मंजिष्ठ लता की जड़ों, अंकुशों, सपों और मकरों व डाढ़ों, नदी के बलनों, खलजनों, अश्वग्रीवाओं तथा
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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