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________________ ८.६] सुदर्शन चरित २११ बात दीर्घकाल तक सुखदायी हो, भले प्रकार बिचार ली गई हो, व अति श्रेष्ठ हो, उसका व्यतिक्रम ( उल्लंघन ) नहीं करना चाहिए। ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जो पश्चात्ताप उत्पन्न करे। ५. पंडिता का रानी को पुनः हितोपदेश उत्तम जाति और कुल में उत्पन्न एवं गुणयुक्त कुलपुत्री का एक ही पति होता है, जो देवों और ब्राह्मणों द्वारा दिया गया है; भले ही वह धनविहीन हो, बहुत रोगों से ग्रसित हो, पङ्गु व ठूठा हो, दुर्बल व दुर्गन्धी हो, चाहे क्रूरचित्त, चिड़चिड़ा, बहरा व अन्धा हो। उसे छोड़कर दूसरा चाहे बड़ा लक्ष्मीवान हो, चाहे सुरेन्द्र हो अथवा स्वयं मकरध्वज हो, तो भी वह महासती द्वारा वर्जनीय है। सती स्त्री को भय, दाक्षिण्य व लोभ नहीं करना चाहिये। गृहकमे में, सन्तान के पालन-पोषण में, पति-प्रेम में, तथा देह को सजाने में स्त्री अपनी इच्छानुसार चल सकती है। किन्तु इन बातों को छोड़कर और स्वेच्छाचरण स्त्री के लिए निषिद्ध और विरुद्ध है। देखो, अमृता नाम की महादेवी, परपुरुष में अनुरक्त होने के कारण कोढ़ से सड़ी और नरक को गई। और भी स्त्रियां बहुत अनर्थकारी और बहुत अपयश की भाजन हुई हैं, जिनको कौन गिन सकता है ? तू उनके मार्ग से मत चल । स्वर्ग को छोड़कर, नरक की वांछा क्यों करती है ? वही खाना चाहिये जो पच जाय व अंगों व उपांगों को स्वास्थ्यप्रद हो। इसके अतिरिक्त मुझे इस बात पर हँसी आती है कि घर में ऋद्धि होते हुए भी भीख मांगते फिरा जाय । तेरा पति त्रिभुवन में सुप्रसिद्ध है, और ऐसा सुन्दर है जैसे मानों प्रत्यक्ष मकरध्वज ही हो। ( पंडिता के इतना कहने पर भी ) अभया महादेवी केवल हँसकर बोली-जो तूने हितकारी बचन कहा, उस सबको, हे माता, मैं भले प्रकार जानती हूं। ६. रानी का प्रत्युत्तर मैं जानती हूं कि वह वणिग्वर बड़ा गुणवान है व पराई युवतियों से विरक्त है। किन्तु, हे माता, मेरा हृदय और कहीं लगता ही नहीं है।॥१॥ मैं भी उपाख्यान ( उपदेशात्मक दृष्टान्त ) जानती हूं। तू क्या बहुत बतलाती है ? हे अम्बे, दूसरे को उपदेश देने में कौन पंडित नहीं है ? ॥२।। मैं जानती हूं कि कुलपुत्रियों के लिए संसार में एक अपना पति ही सेवन करना योग्य है। परन्तु, हे माता, मैं क्या करूँ, उसके ऊपर मेरा मन गड़ गया है ॥३॥ में जानती हूं कि परपुरुष के ऊपर आसक्ति नहीं करना चाहिए, किन्तु कितना ही पुनः-पुनः कहो, भावी अति दुर्लध्य है ॥४॥ जानती हूं कि मेरा कान्त मकरध्वज के समान सुन्दर है, किन्तु, हे माता, मेरे मन में तो सुदर्शन की बाय लग गई है ।।५।। जानती हूं कि तूने मुझ मोहाकुल को हित और मित शिक्षा दी है। किन्तु मैंने आज उपवन को
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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