SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० नयनन्दि विरचित [८. ३पहुँचायेगा। और यदि उस सौभाग्यशाली का समागम नहीं हुआ, तो, हे माता, मैं जी न सकूँगी, यह निश्चित है।" तब उस बुद्धिमती पंडिता ने दोनों हाथों से अपने कान ढाँकते हुए कहा--"हे पुत्रि, जो कुछ तूने कहा, उसपर में थुथकारती हूँ। मरे वह जिसे तू सुहाती न हो। तू तो तबतक जीये, जबतक यह पृथ्वी है। किन्तु वह वणिग्वर तो बुद्धिमानों में श्रेष्ठ है, जिनेन्द्र के चरणकमलों का भक्त है, तथा पंच अणुव्रत आदि शुभ श्रावकव्रतों को दृढ़ता से धारण करता है। ३. पंडिता का रानी को सम्बोधन जो सम्यक्त्वरूपी रत्न से अलंकृत व लक्ष्मीरूपी प्रणयिनी से आलिङ्गित है, तथा जो अपयश के काम को दूर से ही त्यागता है, वह पराई स्त्री को कैसे स्वीकार करेगा ? अनुराग उसी से करना चाहिए जो उसे माने। किन्तु जो अनुनय करनेवाले की अवहेलना करे, तो जिस सोने को पहनने से कान टूटें, उसकी दूर से ही पूजा भली। मैं उसी को स्नेह मानती हूँ, जो पिंचुक के पंखे के समान दोनों ओर रंगा हुआ और मनोरम हो। उस प्रेम से क्या लाभ जो मोरपंख के समान केवल एक ही बाजू सुन्दर व अभिरमणीक है। कहाँ तू , और कहाँ वह ? आलिंगन कैसे बने ? तू दूरवर्ती का स्नेह शीघ्र छोड़ दे ॥" पंडिता का यह वचन सुनकर अभया महादेवी बोली “यहाँ तेरा यह सिखापन और वहाँ सुदर्शन में मेरी रुचि ? ४. रानी का उन्माद ___ हे पंडिते, जिस उपाय से बने, उस उपाय से सौभाग्यशाली को मेरे पास ले आ, और भूमिपर गिरती हुई मुझे बचाले। विरह से मरती हुई के प्रति निष्ठुर क्यों होती है ॥१॥धीरता, बुद्धि, मान, लज्जा, भय और सुमर्यादा तभी तक टिकते हैं, जब तक शरीर को विह्वल बनानेवाला मदन प्रकट नहीं होता ॥२॥ जिसके अदर्शन से दाह और दर्शन से पसीना आता है, उसके ऊपर विरक्त होना, हे माता, यह किससे बन सकता है ? ॥३॥ यदि कोमल बाहु-लताओं के अलिंगन का सुख नहीं भी हो, तो भी यहां अपने सुन्दर वल्लभ के दर्शन मात्र से ही क्या-क्या नहीं मिल जाता ? ॥४॥ प्रियतम ऐसा कोई व्यक्ति होता है कि जिसके बिना कहीं भी चित्त नहीं रमता। जैसा-जैसा सम्बोधन कराया जाता है, वैसे-वैसे हृदय और भी अधिक अनुरक्त होता जाता है ॥५॥ जिसके श्रवण मात्र से, हे माता, हृदय में संतोष होता है, उसके साथ संबंध से न जाने कितना सुख प्राप्त होगा ॥३॥ परस्पर न मिलनेवाले तथा एक दूसरे से दूर स्थित व्यक्तियों में भी स्नेह देखा जाता है। यद्यपि सूर्य आकाशतल में है, तो भी इस पृथ्वी पर नलिनी को उसका सुख मिलता है ॥७॥ अभया का बचन सुनकर, पंडिता बोली-हे पुत्रि, जो कार्य खूब सोच-बिचार पूर्वक किया जाता हैं, वह सब प्रकार सुन्दर होता है। जो
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy