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________________ १५८ नयनन्दि विरचित शोभायमान थे जैसे मानों सिद्धिरूपी वधू की डोली को विवाह कर लाने के लिये चले हों। १०. राजा श्रेणिक का सद् विचार..... जिनेन्द्र देव के दर्शन करके राजा श्रेणिक अपने मन में भत्ति.पूर्वक विचारने लगे-मनुष्यत्व का फल धर्म की विशेषता ही है। मित्रता का फल हित-मित उपदेश है। वैभव का फल दीन-दुखियों को आश्वासन देना है। तर्क का फल सुन्दर सुसंस्कृत भाषण करना है। शूरवीरता का फल भीषण रण मांडना है। तपस्या का फल इन्द्रियों का दमन करना है। सम्यक्त्व का फल कुगति का विध्वंस करना है। सज्जनता का फल दूसरों के गुणों की प्रशंसा करना है। बुद्धिमत्ता का फल पाप की निवृत्ति तथा मोक्ष का फल संसार से निवृत्ति है। जीभ का फल असत्य की निन्दा करना, सुकवित्व का फल जिनेन्द्र भगवान् का गुणगान करना है। प्रेम का फल सद्भाव प्रकट करना व अच्छी प्रभुता का फल आज्ञा पालन है। ज्ञान का फल गुरुजनों के प्रति विनय प्रकाशित करना तथा नेत्रों का फल जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का दर्शन करना है। इस प्रकार चितवन करके श्रेणिक नरेन्द्र ने सन्तुष्ट होकर स्तुति करना प्रारम्भ किया, जिस प्रकार कि कैलाश पर्वत पर स्थित आदिनाथ भगवान की स्तुति सुरेन्द्र ने की थी। ११. जिनेन्द्र-स्तुति जय हो जगतिलक जिनेश्वर भगवन, जिनका अभिषेक सुमेरु पर्वत पर इन्द्र द्वारा किया गया था। जय हो, हे भव्यरूपी सरोवर के कमलों के दिनकर और सुखनिलय । हे भगवन् , आप निष्पाप हैं; और समवसरण के बीच चारों दिशाओं में आपके चार मुख दिखाई देते हैं। आपके कमरूपी मल का पटल विनष्ट हो गया है। आपके नेत्र कमलपत्र के सदृश सुन्दर हैं। हे अरहंत भगवन् , आप कामदेव के बाणों के प्रहार का अपहरण हैं; जन्म, जरा और मृत्यु का परिहरण तथा शुद्ध चरित्र को धारण करनेवाले हैं। आपका समवसरण कुबेर द्वारा निर्मित है ; तथा उसमें आये हुए सब जनों के आप शरण हैं। आप अपने निर्मल यश के प्रसार से भुवनतल को श्वेत करनेवाले हैं, भयरहित हैं, और विषयों के राग की अग्नि को नये मेघ के समान वमन करनेवाले हैं। आपका प्रभामंडल सूर्य के सदृश स्फुरायमान है। देव आपकी दुंदुभि बजाते हैं तथा आप बुद्धिमानों के मन में हर्ष उत्पन्न करते हैं। हे अन्तिम तीर्थकर, आपके ऊपर देव पुष्पों की सघन वृष्टि करते हैं। आपकी अमृत ध्वनि द्वारा स्वमत का मंडन और परमतों का खंडन होता है। आपके ऊपर चंचल चमर दुलते हैं, और आप शिवनगर को गमन करते हैं। देव, मनुष्य, विद्याधर और नाग आपकी प्रतिमहिमा
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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