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________________ सुदर्शन-चरित १५७ एक हाथी दूसरे हाथी को धक्का दे रहा था, एक भट दूसरे का व्युत्क्रमण कर रहा था। अहो, यह खच्चर झड़प लगाकर दौड़ रहा है। राजा की अनुरागिणी विलासिनी स्त्री ( राजा के ऐसे धर्मानुराग को देखकर ) खिन्न हो रही थी। ( यह वर्णन प्रमाणिका नामक सुन्दर छन्द में किया गया है।) जिनेन्द्र भगवान के दर्शन में अनुरक्त जन हर्ष से कहीं भी न माते हुए शोभायमान हो रहे थे, जैसे चन्द्रोदय होने पर समुद्र अपनी कल्लोलों से बढ़ता हुआ शोभित होता है। ८. विपुलाचल-दर्शन चलते-चलते राजा ने लोगों के मन को हरण करनेवाले ऊँचे शिखर से युक्त विपुलगिरि नामक पर्वत को देखा। वह पर्वत हाथियों के गर्जन से ऐसा प्रतीत होता था जैसे दुंदुभी बजा रहा हो, कोकिलों के कलरव द्वारा जैसे गान कर रहा हो, नाचते हुए मयूरों द्वारा मानों नृत्य कर रहा हो, मृगों की उड़ानों द्वारा मानों दौड़ रहा हो, तृणरूपी रोमों द्वारा मानों पुलकित हो रहा हो, निझरों द्वारा मानों खूब पसीज रहा हो। इस प्रकार वह पर्वतराज जगवंद्य जिनेन्द्र भगवान के प्रति चाटुता करता व मानों भक्ति प्रकट कर रहा था; और उच्चस्वर से कह रहा था कि त्रिभुवन की लक्ष्मी के नाथ कब आते हैं, आकर भी क्षणमात्र कहाँ विलम्ब कर रहे हैं। मैं जिनेन्द्र भगवान् की विशेष ऋद्धि से कृतार्थ हो गया। ऐसा कौन है जो सम्पत् पाकर गर्जने नहीं लगता ? विरला ही कोई अपने गुणों से लज्जित होता है। इन्द्र की आज्ञा से कुवेर-विनिर्मित और आकाश में स्थित उस भगवान् के समवसरण को श्रेणिक राजा ने इस प्रकार देखा जैसे हंस मानस-सरोवर को देखे । ९. समोसरण वर्णन वह समवसरण पृथ्वी से पांचसहस्र धनुष ऊपर आकाश में एक योजन विस्तार सहित स्थित था। उसकी चारों दिशाओं में मन्दर छाया दे रहे थे, और सुवर्ण की सोपान-पंक्ति शोभायमान हो रही थी। पृथ्वी इन्द्रनील मणियों से पटी हुई थी, और एक योजन प्रमाण आकाशतल विशुद्ध था। चार मानस्तंभ, जिनकेतन, परिखावलय, वन, उपबन, ध्वजा, कल्पवृक्ष, महान् देवगृह, कोठे, मणिस्तूप, ये सब चमक रहे थे। पवित्र अष्ट मंगलद्रव्य शोभायमान थे, और धर्मचक्र धारण किये हुए चार यक्ष भी। तीन मेखलायें, विशाल सिंहासन, सुवर्णमय सहस्त्रपत्र कमल और उसके ऊपर भगवान् वर्धमान चार अंगुल ऊपर सिंहासन का स्पर्श न करते हुए विराजमान थे। उनका मुख पूर्व दिशा की ओर था, और वे तन्द्रारहित, केवलज्ञान युक्त, इन्द्रादिक द्वारा वन्द्य, निमेष रहित, रोषहीन, नीरागनेत्र, नख और केशों की वृद्धि तथा शरीर की छाया से रहित थे। श्वेत चमर, छत्र और दुंदुभि सहित पुष्पों की सुगंध से युक्त जिनेन्द्र भगवान ऐसे
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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