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________________ णयणदिविरइयउ [१२. ६.६दुहहरणु सुहकरणु परिचइउ मिच्छत्तु ॥ तं सुणिवि अच्छरिउ पुरलोउ संखुहिउ । संपत्तु मुणिदंसणुच्छाहरससहिउँ ॥ तही णाणलोयणही लोएण गिर सुर्णवि। मिच्छत्तु परिहरिउ वउ धरिउ संथुर्णवि॥ तो ताश पंडिया दुग्णयविरत्तान। लहु लयउ तवयरणु सहुँ देवयत्तान॥ एत्तहिँ वि सा सुणेवि केवलसमुप्पत्ति । तही घरिणि हुय अर्ज प्ररु चयवि सहसत्ति ॥ बहुदियहि सा ताउ पियपमुहसुहलेसँ। गय तियसलोयम्मि करिऊण सण्णासु॥ अवसेस कम्मत्थिया दड्ढरज्जु व्व। तही थोक्यालेण गय खयही ते सव्व ।। पुणु पूसपंचमिहिँ वरसोम्मवारम्मि । सुधगिट्ठणक्खत्ते पहरावसेसम्मि । मुणि सहियउवसग्गुं मलपडलपरिचत्तु । एकेण समएण लोयग्गे संपत्तु ॥ [मयणावयारो णाम छंदो] पत्ता-दोसट्ठारहचत्तउ गुणसंजुत्तउ तणुकिंचूणायारे। थिउ णिव्वार्ण मुणीसरु महु परमेसरु देउ बोहि अवियारे ॥६॥ अही सेणिय महरायाहिराय वरपंचणमोकारहँ रएण तहिँ णरु जइ को वि सहावजुत्तुं पुज्जाविहाणु सयलु वि करेइ खाइयसम्मत्तणिबद्धराय । जहिँ सिवसुहु पत्तउ गोवएण। पंच वि पय झायई एयचित्तु । तो किं ण सिद्धिवहु मणु धरेइ । ६. २ घ भरि। ३ ख ता। ४ ख अजि। ५ ख दिहिं । ६ प्रतिषु "णियपमुह"। ७ क सुदद्दणक्खत्तें। ८ ख मुणि सहिउ उवसग्गु। ९ क यारो। ७. १ ग घ विबद्धराय। २ क ख सहायजुत्त। ३ क ठाइय। ४ क मप ।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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