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________________ जयणदिविरइयउ [७.४.१ पलोइओ ताण सणिद्धदिट्ठिए पयंपियं चित्तणुरायहिट्ठिए। वयंसि जं सोक्खमणिट्ठदंसणे ण तं सुगाढेइ परस्स फंसणे ॥ वंसत्थ ॥ एवहिँ सहि गंपिणु जइ महु वेयण जाणहि । पिउ बोल्लिवि पिययमु तो महु णिलयही आणहि ।। गय जंपइ दूइ भो पंकयदललोयण । तुह मित्तही संपइ मत्था वट्टई वेयण ॥ अवियप्पु वणीसरु लहु सउहयले पइट्टउ । सुहि एत्तहिँ तेत्तहिँ जोयंतेण ण दिट्ठउ ।। पुच्छिय कहिँ कविलो अच्छइ वेयणजुत्तो। तो कविलए कामो कर धरेवि इय वुत्तो । तुह विरहपरव्वस हउँ झीणी अणुदिणु किह । इह किण्हत पक्खन मयलंछणलेहा जिह ॥ किं दिसउ णियच्छहि महु उप्परि दय किजउ । परिउंबिवि' सुहव गाढालिंगणु दिजउ॥ ण मुणइ वित्तंतरु कविला रइसुह वंछ। सञ्चउ आहाणउ अत्थी दोसु ण पेच्छइ ॥ तो चवइ सुदंसणु सुंदरि किं तुहुँ ण मुणहि । लइ कहमि हियत्थे गूढमम्मु" महु णिसुणहि ।। पर कसु वि म अक्खसुजाणहि संढउ मई इह । बाहिरं परसुंदरु इंदवारुणीफलु जिह ॥ __सहसत्ति विरत्ति कविलय मुक्कु वणिंदो। मागहणक्कुडिया णामे १७ एसो छंदो॥ घत्ता-दूरयरपियाहँ महिलहँ "मणसंतावणु। तहिँ अवसर पत्तु मासु वसंतु सुहावणु ॥४॥ ४. १ ख दिट्ठिए ग घ सिदिए। २ क गइ। ३ ख वट्टा ग घ वद्धए । ४ क पवियप्पवसें। ५ क वुत्तउ। ६ क तउ। ७ ख रेहा। ८ क ज्जइ। ६ क परिऊरवि। १० ख इय सच्चउ ऊहाणु। ११ क गूढमणु। १२ ख पर कासु वि मा मक्ख। १३ ख बाहिरि परिसुंदरु दीसइ। १४ ख णामो। १५ क पहयिह घ पहियरु ।
SR No.032196
Book TitleSudansan Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayanandi Muni, Hiralal Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1970
Total Pages372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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