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________________ 321 हुआ ते तो, अक्षय भाव कहाय, (३) अक्षयपद दीये प्रेमशुं रे, प्रभुनुं ते अनुपम रूप, अक्षर स्वर गोचर नही तेतो, अकल अमाव्य अरूप (४) अक्षर थोडा गुण घणा रे, सज्जनना ते न लखाय, वाचक यश कहे प्रेमशुं पण मनमाहे परखाय० जगतगुरु (५) (5) श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन (राग : बेनारे) मुनिसुव्रत जिन राय, एक मुज विनती निसुणो | आतमतत्त्व क्युं जाणुं जगतगुरु, एह विचार मुज कहीयो; आतमतत्त्व जाण्या विण निरमल, चित्तसमाधि नवि लहिये ।मु०। १ कोई अबंध आतमतत्त्व माने, किरिया करतो दीसे; क्रियातणुं फळ कुण भोगवे, इम पूछ्युं चित्त रिसे ।मु०। २ जड चेतन ए आतम एक ज, थावर जंगम सरीखो; दुःख सुख शंकर दूषण आवे, चित्त विचारी जो परीखो ।मु०। ३ एक कहे नित्य ज आतम तत्त, आतम दरिसण लीणो; कृतविनाश अकृतागम दूषण, नवि देखे मति हीणो |मु०। ४ सुगत मतरागी कहे वादी, क्षणिक ए आतम जाणो; बंध मोक्ष सुख दुःख न घटे, एह विचार मन आणो ।मु०। ५ भूत चतुष्क वरजित आतमतत्त, सत्ता अलगी न घटे; अंध शकट जो नजरे न देखे, तो शुं कीजे शकटे ।मु०। ६ इम अनेक वादी मतिविभ्रम, संकट पडियो न लहे; चित्तसमाधि ते माटे पूर्छ, तुम विण तत्त कोई न कहे ।मु०। ७ वलतुं जगगुरु इणिपरे भाखे, पक्षपात सवि छंडी; राग द्वेष मोह पख वर्जित, आतम शुं रढ मंडी ।मु०। ८ आतमध्यान करे जो कोउ, सो फिर इणमें नावे; वाग्जाळ बीजुं सहुं जाणे, एह तत्त्व चित्त आवे ।मु०। ६ जेणे विवेक धरी ए पख ग्रहिये, ते तत्त्वज्ञानी कहीये; श्री मुनिसुव्रत कृपा करो तो, आनंदघन पद लहिये ।मु०। १० (6) श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन ओलगडी तो कीजे श्री मुनिसुव्रतस्वामीनी रे, जेहथी निजपद सिद्धि; केवल ज्ञानादिक गुण उल्लसे रे, लहिये सहज समृद्धि, ओ०।१। उपादान निज परिणति वस्तुनीरे, पण कारण निमित्त आधीन; पुष्ट अपुष्ट दुविध ते उपदिश्यो रे, ग्राहक विधि आधीन, ओ०।२। साध्य साध्य धर्म जे मांही
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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