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________________ 290 (4) धर्मनाथ जिन स्तवन (राग : ओक दो तीन चार) धर्म जिनेश्वर ध्याइए, आणी अधिक सनेह, गुण गाता गिरुआ तणारे, वाधे बमणो स्नेह जिनेसर, पूरो माहरी आश हो, जिम पामो शिवपुर वास० (१) काल अनादि निगोदमां रे, भम्यो अनंतिवार, कर्म नटारे रोळव्यो रे, सेव्या पाप अढार-जिनेसर० (२) प्राणातिपात मृषा घणुं रे, त्रीजुं अदत्तादान, विषया रसमां राचीयो रे, कीधुं बहु दुर्ध्यान - जिनेसर० (३) नवविध परिग्रह मेळव्यो रे, कीधो क्रोध अपार, मान माया लोभे करी रे, न लह्यो तत्त्व विचार-जिनेसर० (४) राग-द्वेष-कलह कर्या रे, दीधा परने आळ, पैशुन्य रति-अरति वळी रे, सेवता दुःख असराळ-जिनेसर० (५) दोष दिया गुणवंतने रे, कीधा मायामोष, मिथ्यात्वशल्य दोषे करी, कीधो अविरती पोष-जिनेसर० (६) पाप स्थानक सेवी जीवडो रे, रूल्यो चउगति मोझार, जन्म-मरणादि वेदना रे, सही ते अनंतअपार –जिनेसर० (७) एह विडंबन आकरी रे, टाळो श्री जिनराज, बाह्य ग्रहीने तारजो रे, सारो सेवक काज - जिनेसर० (८) धर्म जिणंद स्तवता थकारे, पहोती मननी आश, जिन उत्तम पद सेवता रे, रत्न लहे शिववास -जिनेसर० (६) (5) धर्मनाथ जिन स्तवन (राग : अब सोंप दिया इस जीवनको) धर्म जिनेसर गाउं रंगशुं, भंग म पडजो हो प्रीत जिनेश्वर; बीजो मन मंदिर आणुं नहिं, ए अम कुळवट रीत, जि० ध० १ धरम धरम करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म; जि० धर्म जिनेसर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बांधे हो कर्म, जि० ध० २ प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान; जि० ह्रदय नयन निहाळे जगधणी, महिमा मेरु समान, जि० ध० ३ दोडत दोडत दोडत दोडियो, जेती मननी रे दोड; जि० प्रेम प्रतीत विचारो ढुंकडी, गुरुगम लेजो रे जोड, जि० ध० ४ एक पखी किम प्रीति परवडे, उभय मिल्यां हुवे संघ; जि० हुं रागी हुं मोहे फंदियो, तुं नीरागी निरबंध जि० ध० ५ परमनिधान प्रगट मुख आगळे, जगत उलंघी हो जाय; जि० ज्योति विना जुओ जगदीशनी, अंधो अंध पुलाय, जि० ध० ६ निरमळ गुणमणि रोहण भूधरा, मुनिराज मानसहंस; जि० धन्य ते नगरी धन्य वेळा
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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