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________________ 264 ।।२।। लायकथी लायक लाज, लहीये महीयल महाराज हो; गुणग्राही गरीब निवाज, पय प्रणमी कहं प्रभु आज हो० ॥३॥ रागी रस अनुभव दीजे, सुपसाय ओ तो अम कीजे हो; साचाने साच दाखीजे, जिनजी तो जस पामी जेहो. ॥४॥ मत चूको मानव! खेव, तारक छे ओही ज देव हो; जग जागृत्ति छे नितमेव, कहे जीवण प्रभु पय सेव हो. ॥५॥ (3) श्री सुविधिनाथ जिन स्तवन सुविधि जिणंद मुजने दरिशण धोने, दिलभर दिलथी मारा सामु जुवोने, हसी तारा दिलनी वातो मने ते कहोने, प्रीतनी रीतमां शुं ते वहोने, ॥१॥ अंतर चित्तनी वारतारे, प्रभु कहुं ते चित्त धरोने, प्रीत प्रतित जिम उपजेरे, तिम अविहड प्रीत करोने, ॥२॥ सुंदर तुम मुख मरकडेरे, प्रभु लोभाव्यां ते अमने, मुजमन मलवा अति घणोरे, चाहे क्षण क्षणमां हे तुजने ॥३॥ ललचावशो दिन केटलारे, इम मुजने दिलासो देइने, हा ना मुखथी भाखीयेरे, बेसी शुं रह्यां मौन लइने ॥४॥ हसीत वदने बोलावीने रे, आज मुजने राजी करोने, वांछित देई अमनेरे, तमे शुं जगमां जश वरोरे ॥५॥ रोग शोक दुःख दोहग, पाप संतापने ताप हरोने, पंडित प्रेमना भाणने रे, प्रसन्न होजो हेज धरीने ॥६॥ (4) श्री सुविधिनाथ जिन स्तवन (राग -- ओ परम कृपालु....) ___ सुविधि जिनेसर साहिब सांभळो, तुमे छो चतुर सुजाणोजी, साहिब सन्मुख नजरे जोवतां, वाधे सेवक वानोजी,....(१) भवमंडपमां रे भमतां जगगुरु, काळ अनादि अनंतो जी, जन्ममरणनां दुःख ते आकरां, हजुए न आव्यो अंतोजी....(२) छेदन भेदन वेदन आकरी, गुणनिधि नरक मोझारोजी, क्षेत्रकुंभी वैतरणी वेदना, कहेतां न आवे पारोजी....(३) विवेक रहित विकल पणे करी, न लह्यो तत्त्व विचारोजी, गति तिर्यंचमां परवशपणे करी, सह्या दुःख अपारोजी....(४) विषय संगी रे रंगे राचीयो, बंधाणो मोह पासोजी, अमरी संगे रे सुर भव हारीओ, कीधो दुर्गति वासोजी....(५) पून्य महोदय जगगुरु पामीयो, उत्तम नर अवतारोजी, आरजक्षेत्रे रे सामग्री धर्मनी, सद्गुरु संगति सारोजी....(६) ज्ञानानंदे रे पूरणपावनो, तीर्थपति
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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