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________________ 238 किजे, तो मन मनाव्यां विण किम रीझे, पंडीत मेरु विजय गुरु चरणे, सेवक विनित कहे राखो शरणे...वंदो रे० ॥५॥ (3) श्री संभवनाथ जिन स्तवन (राग : रंगाई जाने रंगमां) समकितदाता समकित आपो, मन मांगे थई मीठं, छती वस्तु देतां | सोचो, मीठं ते सहु दीडूं, प्यारा प्राण थकी छो राज, संभव जिनेश्वर मुजने. आं०१ इम मत जाणो जे आपे लहीजे, तो लाधुं शुं लेवू; पण परमारथ प्रीछी आपे, तेहज कहीये देवं, प्या० २ ओह अर्थी ह अर्थ समर्पक, इम मत करज्यो हांसु; प्रगट न हतुं तुजने पण पहेलां पण, जे हांसाठें खांसु. प्या० ३ परम पुरुष तुमे प्रथम भजी ने, पाम्या ओ प्रभुताई; तेणे रुपे तुमने प्रभु भजीओ, तेणे तुम हाथे वडाई. प्या० ४ तुमे स्वामी हुँ सेवककामी, मुजरे स्वामी निवाजे; नहि तो हठ मांडी मांगंता, सेवक किणविध लाजे. प्या० ५ ज्योति से ज्योत मिले मन प्रिछे, कुण लहेशे कुण भजशे; साची भक्ति ते हंस तणी परे, खीर नीर तय करशे. प्या० ६ ओलग कीधी ते लेखे लागी, तुम चरणे भेट दीधी; रुप विबुधनो मोहन पभणे, रसना पावन कीधी. प्या० ७ (4) श्री संभवनाथ जिन स्तवन (राग-राखनां रमकडां) संभव जिनवर विनती, अवधारो गुणज्ञाता रे; खामी नही मुज खीजमते, कदीय होशो फळदाता रे, संभव० १ कर जोडी ऊभो रहं, रात दिवस तुम ध्यानो रे; जो मनमां आणो नहीं, तो शुं कहीजे छानो रे.? संभव० २ खोट खजाने को नही, दीजीओ वंछित दानो रे; करुणा नजर प्रभुजी तणी, वाधे सेवक वानो रे. संभव० ३ काळ लब्धि नहि मति गणो, भाव लब्धि तुम हाथे रे; लडथडतुं पण गज बनू, गाजे गयवर साथे रे. संभव० ४ देशो तो तुमहि भलुं, बीजा तो नवि जाचुं रे; वाचक यश कहे सांइ शुं, फळशे ओ मुज साचुं रे. संभव० ५ (5) श्री संभवनाथ जिन स्तवन हां रे हुं तो मोह्यो रे, लाल, जिन मुखडाने मटके, जिन० हुं वारी जाउं (२) प्रभुमुखडाने मटके० (१) नयण रसीला, वयण सुखाला चितडूं
SR No.032195
Book TitlePrachin Chaityavandan Stuti Stavan Parvtithi Dhalo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDinmanishreeji
PublisherDhanesh Pukhrajji Sakaria
Publication Year2001
Total Pages634
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size14 MB
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