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________________ पञ्चमोऽध्यायः जल में डाले, यदि जल के मध्य में डूब जायँ तो उस रोगी को असाध्य समझो, वह अवश्य ही मर जायगा ॥ ३९ ॥ दृश्यन्ते बहवो वर्णा निष्ठयते यस्य रोगिणः । चेदपः प्राप्य सीदेयुन स जीवति मृत्युभाक् ॥ ४० ॥ - जिस रोगी के थूक में अनेक प्रकार के वर्ण-रङ्ग दीख पड़ें, परंतु वे सब जल में थूक के प्राप्त होने पर नष्ट हो जायँ वह नहीं जीयेगा। अवश्य ही तीन मास के अन्दर-अथवा दोषाधिक्य में एक मास में मर जायगा ॥४०॥ पित्तमुष्णानुगं यस्य शंखौ प्राप्य विमर्छति । स रोगः शंखको नाम्ना रुग्णं हन्ति त्रिभिदिनैः॥४१॥ जिस मनुष्य का उष्णतानुग पित्त शंख-ललाट के अस्थिभाग को अर्थात् कनपटी प्रदेश को प्राप्त होकर उसकी लालिमा नष्ट हो जाय इसी प्रकार उठती रहे अथवा दीर्घ होकर नष्ट हो वह शंखक रोग कहलता है, यह असाध्य रोग है, और शंखक रोगी केवल तीन दिन जीवित रहता है ॥४१॥ फेनिलं रुधिरं यस्य मुखात्प्रच्यवते मुहुः। कुक्षिश्च तुद्यते शूलैः स वो यमलालितः ॥ ४२ ॥ जिसके मुख से फेनयुक्त रुधिर वारं वार गिरे और पार्श्व भाग में पीड़ा या शूल होने से दुःखी हो, वह रोगी यमराज गृहीत है, ऐसा समझ कर उसे छोड़ दे, उसकी चिकित्सा न करे ॥ ४२ ॥ वेगान्मांसबलौ क्षीणौ रोगवृद्धिररोचकः। जायन्ते यस्य रुग्णस्य त्रीण्यहानि स जीवति ॥ ३॥ जिस रोगी के वेग से बड़ी जल्दी मांस और बल क्षीण हो जाय और प्रकृत जो रोग उस समय हो उसकी वृद्धि तथा अरोचकता
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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