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________________ ६४ रोगिमृत्युविज्ञाने के सन्धिस्थान में शूल होती हो और दुःख को प्राप्त हो, अर्थात् बेचैनी शरीर वेदनादि से कष्ट हो, इस प्रकार के रोगी को वैद्य मुमूर्षु समझ कर छोड़ दे ॥ ३५ ॥ अपस्वरं त्रुवन् यस्तु स्वस्याप्तं मरणं वदेत् । अपस्वनं च शृणुयात् तस्याप्तं मरणं वदेत् ॥ ३६॥ . जिसका शब्द अपस्वर हो अर्थात् जिसका स्वर खराब हो गया हो, और बार २ अपने मरण को कहता हो और अपस्वन को सुने, शब्दरहित आकाश से आते हुए शब्द को सुने, बिना शब्द के शब्द सुने, उसका मरण प्राप्त है, यह समझे ॥ ३६ ॥ सहसैव ज्वरो यस्य दुर्वलस्योपशाम्यति । तस्यापि जीवनं किंचित् संशये प्रतितिष्ठति ॥ ३७॥ जिस ज्वरी दुर्बल रोगी का ज्वर सहसा-एकदम अकस्मात् शान्त हो जाता है, उसका जीवन संशयास्पद है, यदि नाड़ी ठीक है तो '' यत्न करे, अन्यथा नहीं ॥ ३७ ।। भेपजैविविधैर्मासं रसैश्चोपचरेत् क्रियाम् । यदि लाभं न लभते तमसाध्यं वदेत्तदा ॥ ३८॥ अनेक प्रकार के क्वाथ चूर्ण अवलेहादि से और रसाभ्रादिक से एक मास तक उपचार-ठीक प्रकार से पथ्यादि पालन से चिकित्सा करे, परंतु फिर भी यदि लाभ नहीं हो तो उसे असाध्य समझे। अरिष्ट ज्ञान का तद्विषयक प्रकार बताते उसकी परीक्षा करे ॥ ३८ ॥ पुरीषवीयनिष्ठयूतान्यप मध्ये च पातयेत् । मज्जन्ति चेद् विजानीयाद् असाध्योऽयं मरिष्यति ॥३९॥ उस रोगी का पुरीष-विष्ठा पाखाना, वीर्य और निष्ठय त-थूक कुछ कफ सहित होने पर स्पष्ट प्रतीति हो सकेगी, इनमें से किसी को
SR No.032178
Book TitleRogimrutyuvigyanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuraprasad Dikshit
PublisherMathuraprasad Dikshit
Publication Year1966
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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