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________________ [ ७ जीवात्मा का क्रमिक विकास करनी पड़ती है क्योंकि यह भी बाधक बन जाता है । अधिकांश साधक यहीं रुक जाते हैं । वे ब्रह्मज्ञान तक नहीं पहुंचते । जो आनन्द ही प्राप्त करने का इच्छुक है वह यहीं रुक जायेगा । योग की क्रियाएँ व अन्य साधनाएँ यहीं समाप्त हो जाती हैं । पुरुषार्थ की यही अन्तिम सीमा है। इसके आगे समर्पण ही महत्वपूर्ण हो जाता है । पुरुषार्थ से बढ़ने वाले इससे आगे नहीं जा सकते । यहाँ अहंकार तो मिट जाता है किन्तु अस्मिता बनी रहती है । यहाँ पहुंचे व्यक्ति की घृणा, हिंसा, दुख, वासना आदि छूट जाती हैं किन्तु अपना अलग अस्तित्व बना रहता है । इस शरीर को प्राप्त व्यक्ति दैव योनि में रहेगा । मोक्ष प्राप्त करने के लिए उसे पुनः मनुष्य योनि में आना पड़ेगा । यहाँ तक पहुंचे व्यक्ति से शक्तिपात सम्भव है । हठयोगी, योगी व आत्मसाधक यहीं तक पहुंच पाते हैं। आगे पहुंचने के लिए पुरुषार्थ की सभी विधियाँ व्यर्थ हो जाती हैं । वहाँ भिन्न विधियाँ काम में आती हैं । यही वेदान्त का “विज्ञानमय कोश" है । 000
SR No.032177
Book TitleMrutyu Aur Parlok Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Dashora
PublisherRandhir Book Sales
Publication Year1992
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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