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________________ जीवात्मा का स्वरूप [ ३५ मनुष्य की इसी स्वतन्त्रता के कारण उसे सन्मार्ग पर चलाने के लिए ही विधि-निषेध शास्त्रों की आवश्यकता है। जीवात्मा यद्यपि कर्म करने में स्वतन्त्र है किन्तु पूर्व जन्मों में किये गये कर्मों के फलस्वरूप उसका जो स्वभाव बन गया है उसी के अनुसार वह कर्म करता है। इसलिए वह संस्कारों के अधीन है तथा इसी के अनुसार वह फल भोगने में भी परतन्त्र है। वह कर्म फलों के भोग के लिए हो शरीर धारण करता जीवात्मा स्वयं अपने लिए कर्मफल की व्यवस्था नहीं कर सकता तथा परमात्मा भी उससे अलग कहीं स्वर्ग में बैठकर इसकी व्यवस्था नहीं करता। वह जीवात्मा के भीतर रह कर ही इसकी व्यवस्था करता है। इसलिए जीवात्मा इसमें भी परतन्त्र है। कर्मफल ईश्वर स्वयं देता है। विवेक जागृत होने पर वह सद् कर्म में प्रवृत्त हो सकता है। कर्म संस्कारों के अलावा इन्द्रियां, शरीर तथा सहकारी बाह्य कारणों की उपलब्धि में भी वह परतन्त्र है। शरीर की शक्ति भी सदा अनुकूल नहीं रहती। इसलिए वह परतन्त्र ही है। जीव के सुखदुखों का सम्बन्ध उसके कर्मों से है । ईश्वर स्वयं सुख-दुःख नहीं देता। जीव ईश्वर का अंश होते हुए भी उसका ईश्वर से सम्बन्ध पिता पुत्र की भाँति है। ईश्वर उसके सुख-दुःखों में लिप्त नहीं होता। इन विधि-निषेध शास्त्रों का सम्बन्ध केवल शरीर से है। इस जन्म में जो सुख-दुःख हम भोग रहे हैं। वह कुछ तो इसी जन्म में किये गये कर्मों के कारण है व कुछ पूर्वजन्म में किये गये कर्मों के फल भोग के कारण है। इन कर्मों का कभी क्षय
SR No.032177
Book TitleMrutyu Aur Parlok Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNandlal Dashora
PublisherRandhir Book Sales
Publication Year1992
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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