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________________ रोग असाध्य जहाँ बहु देखै कारण और निहारै । बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवनको डारै । जो न बनै तो घर में रह करि सब सों होय निराला । मात पिता सुत त्रियको सोंपे निज परिग्रह इहिकाला ॥४॥ कुछ चैत्यालय कुछ श्रावक जन कुछ दुखिया धन देई।। । क्षमा क्षमा सब ही सों कहिके मनकी सल्य हनेई ॥ शत्रुन सों मिल निज कर जोरै मैं बहु करिइ बुराई । - तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सब बकसो भाई ॥५॥ धन धरती जो मुखसों मांगै सब सो दे संतोषै । छहों कायके प्राणी ऊपर करुणा भाव विशेषै । ऊंच नीच घर बैठ जगह इक कुछ भोजन कुछ पैले। दूधाधारी क्रम क्रम तजि के छाछ असार पहेलै ॥६॥ छाछ त्यागि के पानी राखे पानी तजि संथारा ।। भूमि मांहि थिर आसन माँ है साधर्मी ढिंग प्यारा ॥ जब तुम जानो यहै जपै है तब जिनवाणी पढ़िये । यों कहि मौन लियो सन्यासी पंच परम पद गहिये ॥७॥ चौ आराधन मनमें ध्यावै बारह भावन भावै । दशलक्षण मन धर्म विचारै रलत्रय मन ल्यावै ॥ पेंतीस सोलह षटपन चौ दुई इकई बरन बिचाएँ । काया तेरी दुखकी ढेरी ज्ञान मयी तू सारें ॥८॥ अजर अमर निज गुण सों पूरै परमानन्द सुभावै । आनँद कन्द चिदानंद साहब तीन जगत पति ध्यावै ॥ क्षुधा तृषादिक होय परीषह सहै भाव सम राखे । अतीचार पांचों सब त्यागै ज्ञान सुधारस चाखै ॥६॥ हाड़ मांस सब सूखि जाय जब धरम लीन तन त्यागै । अद्भुत पुण्य उपाय सुरगमें सेज उठे ज्यों जागे। तहँतै आवै शिवपद पावें बिलसे सुक्ख अनन्तो । . 'द्यानत' यह गति होय हमारी जैनधरम जयवन्तो ॥१०॥
SR No.032175
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadasukh Das, Virendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishva Jain Mission
Publication Year1958
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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